Saturday, February 25, 2012

जब वक्‍त ने बदली करवट...???



गैर्रों की समझ में न आयें हम, तो कोइ ग़म  नही
अपने न समझें हमें, तो समझो; अब हम नहीं 'अकेला'

चित्र गूगल साभ

वक्‍त का तकाज़ा देखो
 सुनना मेरा काम रह गया 
बोलता था जो सबसे ज्यादा 
चुप रहना उसका काम रह गया |

दखते थे वो सब 
मेरी ही नज़रों से 
देखता मैं अब  
बस उनका काम रह गया |

जो पहचाने जाते थे 
मेरे नाम से 
वो आ गए आगे 
अब सिर्फ मेरा नाम रह गया  |

वक्‍त क्या चाल चल गया 
ख़ासम -ख़ास  था में कभी 
वक्‍त ने बदली करवट 
अब बस मैं आम रह गया |

वक्‍त की पगडंडी पे चलते-चलते 
आ गया बुढापा मुझ पर 
अब दौड़ा न मुझसे जायेगा 
अब कहाँ मैं बांका -जवान रह गया |

मस्ती में उड़ता फिरता था 
जिन रास्तों पे मैं  
अब रास्ता वो सिर्फ 
मेरे लिए जाम रह गया |

जिंदगी गवां दी झूठे 
रिश्ते नातों में 
टूटा जो दिल 
तो दिल थाम रह गया  |

देख-देख सबको 
झूठी हंसी मैं चेहरे पे लाऊं 
बस आखिर में यहीं तक 
अब मेरा काम रह गया  |

कभी लगता था 
चारों तरफ़ मेला मेरे 
'अकेला' अब मैं 
बस सरे-आम रह गया || 





अशोक'अकेला'






Monday, February 20, 2012

इस उम्र में, माँ को याद करोगे तो ....


नानी याद आने लगेगी !!!


ये टिप्पणी थी ...मेरी पिछली पोस्ट पर, 
मेरे शुभचिंतक और चाहने वाले, डॉ. टी.एस. दराल साहब की ...
जो बड़े हल्के-फुल्के अंदाज़ में की गई थी और मैंने भी इसे 
उसी अंदाज़ में लिया....पर एक मन चाह विषय मिल गया |
आभार डॉ. साहब का .... दिल ने कहा कि मैं इसपे अपनी 
भावनाओं को व्यक्त कर सकता हूँ या कोशिश कर सकता हूँ |
तो ये उसी का नतीजा है जो ये पोस्ट में लिखने की 
हिम्मत कर रहा हूँ |
क्या माँ को याद करने की कोई उम्र होती है ...?ये मुझे नही पता...मैं 
आप से पूछ रहा हूँ ?  मैंने तो अपनी  माँ को कभी  देखा ही नही,
न सजीव ,न किसी फोटो में ,फोटो थी नही और जब वो मुझ से रूठ 
के भगवान के पास गई ,मुझे होश नही ,मैं तक़रीबन तब एक साल
और कुछ महीने का रहा हूँगा ऐसा मुझे बताया गया |

मुझको मेरी नानी जी ने पाला-पोसा ,बड़ा किया ,पढाया ,लिखाया 
ज्यादा नही पढ़ सका ,ये मेरी कमजोरी थी...न कि किसी और की..
चाहे कमजोरी की वजह कुछ भी रही हो ....बिन माँ के बच्चे में कुछ 
अनचाही कमियां तो आ ही जाती हैं न ?
तो नानी ने ...इतना प्यार दिया कि माँ की कभी याद ही नही आने दी ....
क्योकि मैं "अकेला" था ,अकेला हूँ ...!!!
जब तक वो मेरे साथ इस जहां में रही ..मैं इन यादों से दूर ही रहा ...

(अपनी नानी जी के साथ मैं )
नानी जी का स्वर्गवास २७ फ़रवरी १९८९ को .......


मैने माँ को नही,
      माँ की माँ को देखा है
  वो मेरे लिये सब सहती थी
उसकी एक आखँ मे मैं, 
  दूसरी में मेरी माँ जो रहती थी॥























अब ये भी उनका कसूर हो गया क्या ...? बचपन खेलते -कूदते गुज़र गया ,
जवानी रोज़ी-रोटी,बच्चों के पालन-पोषण और कुछ अठखेलियाँ और मस्ती 
में .......!!!
खैर ! बचपन बीता,जवानी बीती और कब बुढ़ापे ने दस्तक दे दी ...पता 
ही नही चला ,जब पता चला तो वो अपना कब्जा जमा चूका था |बुढापा जो, 
ज्यादातर, तन्हाई में और अकेलेपन में गुज़रता है या गुजरेगा ....!! 

तो अब फुर्सत-ही-फुर्सत है मुझे भी और मुझ से दूसरों को भी |
तो अब बुढापा ...तो ऐसे ही कटेगा न ...कुछ अच्छी ,खट्टी-मीठी यादों को
 याद करने से जिनको याद करने कि कभी जरूरत ही नही महसूस हुई ....
अक्सर सुनने में आता था ,,तकलीफ में हमेशा माँ ही याद आती है और मुझे 
माँ से पहले नानी याद आती है ........

अब एक तो ये बड़ी वजह है ..मुझे अपनी माँ की बहुत याद आती है इस 
उम्र में और दूसरी वजह है मेरी नानी जिसने मुझे माँ की याद ही नही आने दी ,
अपनी नानी को याद करने की ...सो इसी बहाने दोनों को अपनी यादों में समेटने 
की कोशिश करता रहता हूँ |
तीन बच्चे .दो बेटियां एक बेटा -तीनों अपनी-अपनी गृहस्थी ,सँवारने मैं व्यस्त |
तीनो के बच्चे भी पढ़-लिख रहे हैं -और अपने-अपने सर्कल में समय बिताने को 
बेताब | बेटे के अभी छोटे हैं ,वो अभी दादा-दादी से खेलने के लिए या दादा-दादी 
उनसे खेलने के लिए अपने समय का सदुपयोग करते हैं ..:-))))))
 बुढ़ापे में अच्छी-बुरी यादेँ ही सहारा होती है, समय बिताने के लिए और मेरा 
मानना है की दूसरों की निजी जिंदगी में दखलंदाजी करने की बजाय ,अपनी यादों को 
याद कर के खुद को खुश या तंग कर लेना ज्यादा बेहतर है ....सब के लिए ?

अब मैं कोई लेखक तो हूँ नही ,कि कोई कहानी बना के लिख दूँ ,
शायरी कर दूँ, गज़ल, नज्म या कोई कविता की चंद लाइनों में अपनी 
बात पुरज़ोर तरीके से लिख सकूं ....इस लिए जैसे-तैसे अपनी कम -समझ 
अनुसार जो जैसे महसूस करता हूँ ,वो ही अहसास वैसे ही साधारण भाषा 
में लिखने कि कोशिश करता रहता हूँ |
हर इंसान का अतीत उसकी यादों में बसा होता है ....ये ही उम्र होती है ,जब 
इंसान अपने वर्तमान से निकल कर अपने अतीत में जाना चाहता है और अपनी 
गुज़री अच्छी-बुरी यादों को संजो कर उनमें खो जाना चाहता है | पहले तो उसके 
पास समय ही नही होता इन सब बातों के लिए और अब समय ही समय है ..
बाकि सब बातों के सिवाय  ..? तो ये यादेँ ही अब बुढ़ापे का सच्चा सरमाया है ....
अच्छा-बुरा सब उसका ..सिर्फ उसका ......अब आप उसे जो चाहे नाम दे लें , 
मेरा समय ऐसे ही कटता है और मुझे ,अच्छा भी लगता है | 

कहीं न कहीं ,मेरी हर लिखी ,लाइनों में जिसे आप गज़ल,नज्म.या कविता कहें या 
जो भी आप समझे ,मुझे तो समझ है नही ,माँ का जिक्र आता है .आता रहेगा और ऐसा 
मैं चाहता हूँ ...मुझे सुकून मिलता है|
ये अहसास मेरे अपने हैं ...और बहुत है ...निजि हैं ,इसमें आप को तकलीफ क्यों दूँ |
कहते हैं ..खुशी दूसरों के साथ बाँटना अपनी खुशियों को दुगना करना होता है ,
ये हमारा फर्ज भी बनता है ,पर अपने दुःख दूसरों के साथ बाँटना अपने दुखों को 
कम करना होता है ,पर दूसरे तो ख्वामखा परेशान होते है ,ये तो हमारा हक कभी
नही बनता ...दूसरे की परेशानी का सबब बनने का .....ये मेरी सोच है |

मैं चाहूँगा कि मैं अपनी सोच के साथ ही रहूँ ,,,और आप से क्षमा मांग ,यहीं 
अपनी बात को विराम दे दूँ ......दुःख सुख सब की जिंदगी में है ..हो सके तो 
सुख बाँट लो वरना दुःख अपने तक ही सीमित रखो .........!!

मेरे पास आप को सिखाने को कुछ नही ,और आप से सीखने को बहुत कुछ .
जो में अपनी पूरी कोशिश कर रहा हूँ ,करता रहूँगा .....आभार !

आप सब बहुत खुश और स्वस्थ जीवन जियें ||
शुभकामनाएँ !
अशोक 'अकेला'

Friday, February 17, 2012

गुज़रे वक्‍त की तलाश...


रोज़ कस्म खाता हूँ 
अब न तुम्हे याद करूँगा ,
रोज़ याद करता हूँ तुम्हे 
इक नई कस्म खाने के वास्ते||
------अकेला


'गुज़रे वक्‍त  की तलाश '

जब जब मैं मुड़ के देखता हूँ
 अपने कदमों के छोड़े निशाँ

 जब-जब याद आती गुज़री जिंदगी,
 तब-तब हो जाता हूँ में परेशाँ |

 उन निशानों पर कुछ अक्स उभरते हैं,
 जो कभी तो थे ,मुझ पे मेहरबां |

 कुछ तो हैं अब भी इस जमीं पर,
 और कुछ खा गया वो आसमां |

 अब भी तलाश है मुझे अपने मेहरबां की,
छान डालूँगा उसके लिए मैं सारा जहां |


उन मेहरबानों में ढूंढता हूँ अब भी 'माँ' को,
रूठ मुझसे चली गई ,न जाने कहाँ |

   
देख'अकेला' मुझ को, वो भी रोती तो होगी,
 जब-जब याद में उसकी ,मैं बिलखता यहाँ  ||

अशोक 'अकेला'

Monday, February 13, 2012

जिंदादिली से भरपूर है ये ....???


एक प्यारा ,प्रेरणा देता सन्देश हम सब के जीवन के लिए ....!

ये ....
आप सब को ....
बहुत प्यार और शुभकामनाओं सहित |



Friday, February 10, 2012

रेत पे लिख के मेरा नाम ,मिटाया न करो ....


आँखें सच बोलती है ,प्यार छुपाया न करो|| 
यादेँ ..... बहुत दिन से मेरी यादों में एक सुंदर ,
नाज़ुक, कोमल और रोमांटिक गज़ल बसी हुई थी ,जो
मैं आप सब को  भी सुनवाना चाहता था |
आज इस रोमांटिक माहोल और खुशनुमा दिल्ली की कंपकपाती
सर्दी में ,ये गज़ल आप सब को एक खुशनुमा गर्मी का अहसास
महसूस कराएगी ....ऐसा मेरा मानना है ..??
आखिर पसंद तो मेरी है और उम्मीद करता हूँ हमेशा की तरह आप
की पसंद पर भी खरी उतरेगी ...आमीन !!!
इस गज़ल को अपनी मीठी और रोमांटिक आवाज़ में ,आप के लिए
गाया  है ....राज कुमार रिज़वी जी ने ....
तो पेश है ....आप के लिए... आप भी सुनियें और कुछ लम्हों के लिए
खो जाइये अपनी मधुर यादों में .....शब्बा खैर !!!

रेत पे लिख के मेरा नाम ,मिटाया न करो
आँखें सच बोलती है ,प्यार छुपाया न करो


लोग हर बात का अफसाना बना लेते है
सब को हालात की रूदाद सुनाया न करो


आँखें सच बोलती है ,प्यार छुपाया न करो
रेत पे लिख के मेरा नाम........


ये जरूरी नही ,हर शक्स मसीहा ही मिले
प्यार के जख्म अमानत है ,दिखाया न करो

आँखें सच बोलती है ,प्यार छुपाया न करो
रेत पे लिख के मेरा नाम ......


शहरे अहसास में पथराव बहुत हैं 'मोहसिन'
दिल को शीशे के झरोंखों से सजाया न करो


आँखें सच बोलती है ,प्यार छुपाया न करो
रेत पे लिख के मेरा नाम ......















Sunday, February 05, 2012

अंदाज़ अपने देखते हैं ,आइने में वो ....

और ये भी देखते हैं ,कोई देखता न हो||
यादों के खज़ाने से ......आज आप को सुनवाता हूँ !
एक बहुत प्यारी गज़ल  ,जो यकीनन ,हर गज़ल के शौकीन और 
"जनाब गुलाम अली साहब" की सुरीली आवाज़ के मुरीदों ने जरूर 
सुनी होगी |

हंगामा है क्यों बरपा , थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नही डाला ,चोरी तो नही की है ....!!!

ये वो  गज़ल है जिसे सुन कर पीने वाले मूड में आ जाते है 
और न पीने वालों का... पीने का मूड बन जाता है ......!!!

"जनाब गुलाम अली साहब" की एक खास खासियत ये भी है कि
वो अपनी ही गाई  गज़ल को जब-जब भी गाते है ,तब तब उसमे 
नए-नए तजुर्बे कर ,एक नए अंदाज़ में उस गज़ल  को पेश करते हैं |

इस तरह उनकी गाई हर गज़ल का हर बार अपना एक नया दिलकश 
अंदाज़ होता है .जो सुनने वाले को गज़ल की नई ताजगी देता है |

अब आप ही सुन कर बताएं, इस दिलकश  गज़ल को जिसमें उनकी 
ली हुई ,मुरकियां और ऊँची-नीची तानो की सुरीले अंदाज़ को, और 
तबले की सुंदर संगत का सरूर ...बस सुनते ही बनता है ....!!!

क्या आप भी मेरी बात से इत्तिफ़ाक रखते हैं या ......??? 

न करता शिकायत ,जमाने से कोई 
अगर मान जाता ,मनाने से कोई 
न मेरी निगाहों से सागर छलकते 
जो तौबा न करता ,पिलाने से कोई ||---अज्ञात |

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