Friday, December 24, 2010

mera bachpan

तो यादों की शुरुआत  करते है .............................












 मेरा बचपन
           एक


वो बचपन का ज़माना,
था कितना मासूम
था कितना सुहाना॥
वो मुहं से सिटी बजाना
वो बिजली के खम्बे को
  पत्थर से खटखटाना
घर से तुझ को बुलाना
तुझ से पहले तेरे बापू का आना
और मेरा फुर से भाग जाना॥ था कितना मासूम.........
वो जामुन के पेडो पर चढ़ना चढ़ाना
मार के पत्थर वो जामुन गिराना
वो उपर से माली का आना
और हमारा गिरते पढते वहां से
सरपट भाग जाना॥था कितना मासूम............


                   दो
होगा वो किस्सा तुझे याद भी
वो आपस में शर्ते लगाना
शर्ते लगा के माया राम हलवाई
के लड्डू चूराना,और देखना
तेरी तरफ करके बहाना
चोरी का लड्डू तुझ को थमाना॥
था कितना मासूम था कितना सुहाना.............
आता है याद वो स्कूल से भाग जाना
भाग कर सिनेमा कि लाइन में खडे हो जाना
टिकट के लिये हाथ मे मोहर लगवाना
देख के पिक्चर वो हाथ पर से
थूक से मोहर मिटाना॥ था कितना मासूम..............
घर पहूचं थकने का बहाना बनाना
वो रोब से अपनी शर्ते मनवाना
वो नानी से मिन्नते करवाना
मिन्नते करा के फिर मान जाना
फिर नखरे से न न करके
खाने को खाना॥ था कितना मासूम...............

                   तीन
भूला नही हूं वो आज भी
स्कूल से रिपोर्ट बुक का लाना
कम मिले नम्बरों को रबड से मिटाना
और फिर अपने ही हाथौ से
नम्बरं बडाना और फिर बडी
शान से सबको दिखाना॥था कितना मासूम.......
क्या दिन थे वो भी
था रामलीला का ज़माना
देखना रात रोज़ ९ से १२
सिनेमा का शौ और था
कभी राम को बनवास कभी लंका
दहन का बहाना॥था कितना मासूम.............
वो हसंना हसाना,वो रूठना मनाना
वो गुस्से में गाली,प्यार में गले लगाना
वो नखरे दिखना,वो मिन्नते कराना
मिन्नते कराके फिर मान जाना॥ था कितना मासूम................


                         चार
न किसी ने पूछा न समझा न जाना
कब कैसे और कहां खो गया
मेरा बचपन सुहाना॥ था कितना मासूम..............
कितने याद करूं वो बचपन के दिन
कितना याद करूं वो वक्त सुहाना
न रहें वो बचपन के दोस्त और
न रहा वो वक्त पूराना॥ था कितना मासूम.................
अब तो साथ हैं कुछ यादे उसकी
कुछ बीता हुआ वो वक्त सुहाना
वक्त के साथ मेरा भी खो गया बचपन
अब तो हो गया मैं भी
बुडा और पुराना॥ था कितना मासूम...................
था कितना सुहाना वो बचपन का ज़माना॥....
यूं ही याद करता हूं कभी कभी
किस्सा अपने बचपन का,
करते करते हो गया आज
मैं भी पचपन का॥...................१९९९.  हाँ हाँ ....ये में ही हूँ .......................................



5 comments:

  1. ये सभी कविताएं एक अलग ही भाव-संसार में ले जाती हैं...बहुत ही गहरे भाव !....बधाई !

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  2. डाक्टर साहिबा ,आप जैसी लेखिका ने एक बिन माँ के बच्चे के भावो को पड़ कर सराहना की ...बहुत भावुक हूँ मैं !
    ये मेरी कविता नही ,ये मेरा बिताया हुआ बचपन है !आज मैं ७० वे साल मैं हूँ !और ये मन की बातें १२-१३ साल पहले लिखी थी | आज जैसी सुविधा नही थी ! और न ही मैं कोई लेखक !
    सिर्फ ये दिल के एहसास हैं !
    बहुत खुश और स्वस्थ रहें |
    अशोक सलूजा !

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  3. जिंदगी से इतने निराश क्यों हैं,अकेलेपन को ओढ़ सा लिया है.आप लेखक नही है तो क्या हुआ कितनी इमानदारी से सरल शब्दों में अपने मन की बात लिखते हैं.लगने लगा मनो आपकी हर शरारत में मैं भी आपके साथ थी.ये सहजता और सरलता आपके लेखनी की ख़ूबसूरती है सखे ! इतना बहादुर मेरा बुजुर्ग दोस्त ,मेरा वीर जिसके पास अनुभवों का अकूत खजाना है वो अकेले कैसे हो सकता है.गंदी बात अब उदासी भरा लिखा तो .

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  4. @ इंदु पुरी जी ,

    मुझे तो ठीक से धन्यावाद करना भी नही आता ..... क्या कहूँ ..
    आप के आदर से भरपूर शब्दों के लिये ...
    बहुत सारी शुभकामनाएँ !
    आप के अच्छे स्वास्थ्य के लिये !

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  5. धन्यवाद की कोई आवश्यकता नही वीरजी ! और...कुछ ना कहिये बिना कहे शब्दों को भी सुनना जानती हूँ,समझ लेती हूँ.किसी की रचनाओं ,उसके पसंद के गानों ,उसके पोस्ट किये चित्रों से उस व्यक्तित्व को पढ़ लेती हूँ.
    जो हूँ जैसी हूँ बिना किसी आवरण के हूँ.छल कपट से सख्त नफरत करती हूँ.बस ऐसिच हूँ मैं.सबको खूब प्यार करती हूँ बिना किसी अपेक्षा के ....बिना किसी स्वार्थ के.
    न न न स्वार्थी नम्बर वन हूँ जो करती हूँ अपने सुकून के लिए करती हूँ और 'उसकी' लाडली बेटी हूँ इस तरह यहाँ जी कर जाना चाहती हूँ कि वो मुझे पास बुला कर गले लगाए और कहे -'मेरी बिटिया तु आ गई.' हा हा हा
    'जीवन में जो पाया ' उसका ज़िक्र आपकी अगली रचना में पढ़ने को मिलेगा इसी आशा के साथ.
    स्माइल प्लीज़

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मैं आपके दिए स्नेह का शुक्रगुज़ार हूँ !
आप सब खुश और स्वस्थ रहें ........

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