Wednesday, October 26, 2011

मेरे एहसास ,मेरे दिल की आवाज़ ......















आप सब को दीपावली और भाई-दूज के 
पावन-पर्व पर बहुत सारा स्नेह ,प्यार और 
शुभकामनाएँ....


"कुछ खट्टी .कुछ मीठी 
कुछ सच्ची .कुछ तीखी" ||

मेरे दिल की आवाज़ ....














कितने प्यारे ब्लाग के रिश्ते ,यह जो बने  आभासी 
इक टिप्पणी पा होते खुश ,न मिले छा जाये उदासी |

प्यार सब को दिया करो ,टिप्पणी की न फ़िक्र करो 
इन सब बातों से उपर है, यह छोटी बात!  जरा-सी |

अपनी-अपनी ढपली और  अपना-अपना राग 
कोई लिखे यहाँ कविता ,कोई सुनाए भीम-प्लासी |

सियासत से भरी है, यह सारी  दुनिया 
अपनी-अपनी चाल चले, यहाँ सब सियासी |

कभी-कभी पर, देख बेढंगी इनकी चाले 
दिल मेरा बोले, बन जाऊ अब सन्यासी |

तब पछताऊं,छोड़ के क्यों मैं अपना घर 
सोचूं में! क्योंकर  यूँ बना बनवासी |

बहन, बेटी, दोस्त मुझे मिले यहाँ सब 
सब बहुत ही प्यारे, यहाँ के निवासी |

मैनें देखी नफरत बड़ी ,दुनियां इस से भरी  पड़ी 
बस बुझे ,प्यार की प्यास, न रहे अब कहीं उदासी|

पर अब भी ढूंढे ,मेरी यह अखियाँ अपनी माँ को 
जिनके दरस को जीवन भर, तडप रही यह प्यासी |

दोनों हाथ जोड़ मांगूं माफ़ी सारे जग की माँ से  
माफ करो हे माता घंटे वाली अस्सी-चार चौरासी
|
कितने प्यारे ब्लाग के रिश्ते ,यह जो बने आभासी .... अशोक"अकेला"

दिवाली मुबारक हो ...२०११.
आप सब खुश और स्वस्थ रहें !!          

Tuesday, October 18, 2011

यूँ न रह रह कर हमें तरसाइए ....


आइए! आ जाइए!  आ जाइए||


यादें .... आज मैं आप के लिए ...अपनी यादों के खज़ाने से ढुंढ के लाया हूँ !
एक बहुत पुरानी ग़ज़ल  या यूं कह ले कि अपने से भी पुरानी और इस ग़ज़ल 
को गाने वाले मेरे से १५ साल पहले पैदा हो चुके थे |

इस ग़ज़ल  को गाने वाले मास्टर मदन  जो १९२७ में जन्में ,१९३५ में  यह  ग़ज़ल 
उनके मुहँ से निकली और १९४२ में वो छोटी सी उम्र में  इंतकाल फरमा गए |


पर इस छोटी सी उम्र में वो हम सब को दे गए अपनी रूह से गाए कुछ  नगमें |
जिनमें से सिर्फ आठ के करीब ही रिकार्ड हुए | उनमें से यह दो ग़ज़लें  बहुत ही ज्यादा
मकबूल हुई ,जिनमें से एक आज मैं आप की  नजर कर रहा हूँ | दूसरी फिर कभी ...
.
तो सुनिए उस कमसिन और रूहानी आवाज में यह ग़ज़ल  और खो जाइये उस आवाज में ...
तब .....जब आज की तकनीक नही थी और न ही आज के दौर का संगीत ,जिसमें एक
न अच्छा बोलने वाला भी अच्छे सुर में गा जाता है ...आज की तकनीक के पर्दे में छुप कर |
तब ....था सिर्फ आवाज का जादू जो सर पर चढ़ कर बोलता था और थे खूबसूरत अलफ़ाज़..
....और अलफ़ाज़ो की अदायगी.....

पेश है मेरी पसंद, आप की नज़र  ....इस उम्मीद के साथ कि यह आप की पसंद पर
भी खरी उतर कर, आप का भी दिल बहलाएगी ......
आवाज़ : मास्टर मदन
अलफ़ाज़: सागर नीज़ामी
साल :1935
(१९२७-१९४२)














यूँ न रह रह कर, हमें तरसाइए
 आइए, आ जाइए,  आ जाइए|

 फिर वही दानिस्ता, ठोकर खाइए
 फिर मेरी आग़ोश में, गिर जाइए|

 मेरी दुनिया, मुन्तज़िर है आपकी
 अपनी दुनिया छोड़,  कर आ जाइए|

 ये हवा,  `सागर, ये हल्की चाँदनी
जी में आता है, यहीं मर जाइए||

Thursday, October 13, 2011

देख और सुन रोज़ की महंगाई.....

फिर "यादें" अपनी पुरानी आई|| 


कहानी पुरानी....एक आने की!!! मेरी ज़ुबानी
यादें ....बचपन की!!!
यादें....किशोरावस्था की !!! 
यादें ..यादें ..यादें ही रह जाएँगी बस!!
इस अवस्था की ....???

एक  
क्या था वो भी, ज़माना सुहाना
चलता था जब, एक आना पुराना
एक रूपये में होते थे, चौंसठ  पैसे
दो पैसे का एक टक्का पुराना
दो टक्के  बनता,फिर  एक  आना 
चार पैसे की बने, एक इकन्नी 
दो इकन्नी मिल,  बने दुअन्नी 
दो दुअन्नी, या चार आने बने चवन्नी 

दो चवन्नी, मिल  बने  अठन्नी 
दो अठन्नी से, फिर बना  रुपैया
सो बाप बड़ा न भैया, भैया  
सब से बड़ा,  बना  रुपैया,
सो आने सोलह, का एक रुपैया 
  मानो न मानो, क्या था जमाना
  चलता था जब, एक आना पुराना ||
   दो                  
अब चलो चलाये हम इक आना 
दो आने की आ जाती थी भाजी-पूरी दो
एक आने में पुरे, दो केले लो  
  एक आने में मिल जाये गर्म समोसा 
हों चार आने तो खाओ इडली डोसा 
अब केसे हो ये मेल सुहाना
मानो न मानो, क्या था जमाना||

एक आने में मिलती थी चाय गर्म 
एक आने मिलती मट्ठी  साथ नरम 
याद है बचपन , वो स्कूल को जाना 
जेब खर्च में मिलता था, तब एक ही आना 
कहाँ गया वो वक्त सुहाना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||
गोल-गप्पे मिलते थे आने में छै और चार 
यह  आज हो गया उन पे कैसा वार 
यह  कैसी आ गई उन पर आंच 
आज मिले,  दस रुपये के पांच 
वाह भई वाह यह  कैसा जमाना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||

कुल्फी, छोले, बर्फ का गोला, कांजी-वडा 
डट के खाया मेने अपने, स्कूल में बड़ा 
भुट्टा, चाट,आम-पापड ,चूरण,छोले-भटूरे 
सब मिलता था एक-एक आने पुरे पुरे 
सच! नही कोई ये गप्प,  लगाना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||
पांच आने में पिक्चर देखो
चार आने में कोकाकोला 
देख के पिक्चर, बड गयी शान
मुहं में दबाया, एक आने के पान
अब सोचे क्या करें बहाना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||
तीन  
एक रुपया ग़र मिले कहीं से  
चल देते हम फिर वहीँ से
  आज काफ़ी  पिए जरूर 
न था स्टैंडर्ड हम से दूर 
आज निबाहेंगे हम याराना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||

मैं था वो था हम दोस्त पुराने 
बचपन बीता  हुए सियाने
पहुच गए हम कनॉट-प्लेस
लगा इक दूजे से हम  रेस 
अब क्यों और कैसा  घबराना
मानो न मानो, क्या था जमाना||

आठ आठ आने में काफ़ी  पी
बिस्कुट मिला साथ में हमें फ्री 
कोई डाले चवन्नी juke-box में
हम बस बैठे थे इसी आस में 
न पड़े कहीं ऐसे ही उठ जाना
मानो न मानो, क्या था जमाना||

अब पसंद अपनी का सुन रहे थे गाना
रफ़ी साहेब गा रहे थे अपना अफसाना  
परदेसियों  से  न  अखियाँ  लगाना 
परदेसियो को हैं  इक दिन जाना
चल ढूंढे अब अपना ठिकाना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||

रात हो गई अन्धयारी थी 
अब हमे बहुत लाचारी थी 
डी.टी. यु, की बस को देखा 
अब यही हमारी सवारी थी
सोचो घर क्या करें बहाना,   
मानो न मानो, क्या था जमाना||
चार
फिर याद आ रहा वो वक्त पुराना 
सुनाई दे रहा था जब ये गाना
बदला जमाना आहा बदला जमाना 
    छै नए पैसों का पुराना इक आना ||

अब न रहा वो दोस्त 
न रहा वो रूठना ,मनाना 
न रहा वो हसना ,रुलाना 
वापस न आयेगा दोस्त पुराना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||

अब चारो तरफ है मौल ही मौल 
कुछ लेने से पहले जेब को तौल  
अब न आएगा वो वक्त पुराना 
क्या था वो भी वक्त सुहाना 
चलता था जब इक आना पुराना 
      मानो न मानो, क्या था जमाना ||
अशोक'अकेला'


                             
                                                  

Tuesday, October 11, 2011

अलविदा......ग़ज़ल सम्राट "जगजीत सिंह" जी....


यादों.... के झरोखे से जगजीत सिंह !!!
"जिन्दगी जब तक साथ थी 
तब तक था दम में दम 
जिन्दगी ने साथ छोड़ दिया हमारा  
मौत की आगोश में जा लेटे हम"||अशोक'अकेला'

आखिर मौत हमसे छीन के ले गयी 
 ग़ज़ल सम्राट "जगजीत सिंह" जी को....
और रह गयी हमारे पास उनकी यादें ....

उनकी दिल से गाई ग़ज़लें, एक धरोहर के रूप में... 
उनकी अनगनित गाई ग़ज़लों में से एक आप के 
लिए उनको श्रद्धांजलि के रूप में अर्पित है ... 

"हाथ छूटे भी तो रिश्ते नही छोड़ा करते 
वक्‍त की शाख से लम्‍हे नही तोडा करते"
 .गीतकार : गुलज़ार जी
..










Sunday, October 09, 2011

तुम्हारी ज़ुल्फ़ के साये में शाम कर लूँगा ..













सफ़र इक उमर का पल में तमाम कर लूँगा ||
यादें ....जवानी में रोमांस की !!!
आज गीत और संगीत की महफ़िल सजाते हैं
इसी बहाने,आपका और अपना दिल बहलाते हैं ||

आज मैं आप को अपनी पसंद की एक रोमांटिक
गज़ल  सुनवाता हूँ .....

नज़र मिलाई तो पूछूँगा इश्क का अंजाम
नज़र झुकाई तो खाली सलाम कर लूँगा ||

ज़हाने -दिल पे हकूमत तुम्हें मुबारक हो
रही शिकस्त तो वो अपने नाम कर लूँगा ||

तुम्हारी ज़ुल्फ़ के साये में शाम कर लूँगा ..
सफ़र इक उमर का पल में तमाम कर लूँगा ||

जिसे अपने रोमांटिक अंदाज और मीठी आवाज में गाया है
हम सब के लिए रफ़ी साहब ने .....
रोमांटिक शब्द लिखे हैं :राजा मेहदी अली खां साहब ने
संगीत से सजाया : मदन मोहन जी ने ....
पिक्चर : नौनिहाल
वर्ष : १९६७ .









Wednesday, October 05, 2011

एक मुलाकात "राम राम भाई " वीरुभाई के साथ ....

वीरुभाई
Virendra Kumar Sharma to me
अशोक भाई इस फ़ाइल में फ्टोग्रेफ्स खुले नहीं हैं .आप अपने ब्लॉग पर ही डाउन लोड करलें कुछ संस्मरण सा चार पांच पंक्तियों में ,बेटे का नाम निशांत शर्मा है (कमांडर निशांत शर्मा ).
आपसे मिलकर खुद से ही मिला .बिलकुल मेरे जैसे बिंदास सब कुछ शेअर करने को आतुर सहज विश्वासी .भले टूटता रहे विश्वास .विश्वास बनते ही टूटने के लिए हैं .
एक दोस्त मिला मिलने के लिए अपनी कहने के लिए उसकी सुनने के लिए .आज कोई किसी को सुनना ही नहीं चाहता .हर कोई अनमना खुद से ही खफा खफा सा है .ज़िन्दगी से रूठा हुआ .हम तो आज भी ज़िन्दगी ढूंढ रहें हैं जहां से भी मिले टुकडा टुकडा चिंदी चिंदी .
फिर मिलेंगें इंशा अल्लाह .आदाब.शब्बा खैर .
वीरुभाई आदर एवं नेहा से .
2011/10/3 Ashok Saluja <akssaluja@gmail.com>
वीरू भाई ,राम-राम !

कुछ संस्मरण...वीरुभाई के साथ ,,,

चार लाइन लिखीं जाती हैं 
त'आरूफ कराने के लिए ,
लेख लिखे जाते हैं पूरी 
कहानी सुनाने के लिए||


वीरुभाई,उनका अशोकभाई 


मैं इनके लेखक डॉ.टी.एस.दराल जी से पूरी तरह सहमत हूँ ! 
अब वीरुभाई जी , अरविंद मिश्र जी,सतीश सक्सेना जी 
और इन जैसे बड़े-बड़े लेखकों की तरह 
लेख लिखना तो मेरे बस की बात नहीं ...
सो जैसे-तैसे अपने एहसास बयाँ करने की कोशिश की है ,
उम्मीद करता हूँ ! मेरी भूलें  भुला कर ,इन एहसासों को 
बिना, मेरे लिखें में  गलती निकाले,इनको ऐसे ही मेरे एहसासों में 
मूल रूप में ही रहने दें |
पढे-लिखे का लेख न समझ अनपढ़ के एहसास के रूप में ही .....

इस मान-सम्मान के लिए !
आभार होगा !
वीरुभाई और उनके साहबज़ादे कमांडर निशांत शर्मा







30th Sep, To 1st & 2nd Oct. 2011

न्योता मिला ,फोन मिलाया ,
नम्बर लगा और बात हुई |

अगले दिन का मिलना तय हुआ 
वो दिन आया ,मिले मुलाकात हुई |

मैंने हाथ बढाया ,हाथ मिलाने के लिए 
वीरुभाई ,ने हाथ झुकाया ,चाह मैं खड़ा रहूँ 
पांव छुआने के लिए |

न उसनें हाथ मिलाया 
न मैंने पांव छुआया |
मज़बूरी थी ,हंस के हमनें 
एक-दूजे को स्नेह जताया|
वीरुभाई  और अशोकभाई
पहले थोडा सुना ,फिर कुछ कहा
फिर पहली मुलाकात में मुझको 
अपना राजदां बनाया |

फिर दिल खोल दिया मैंने अपना 
और जी भर के अपना दुखडा सुनाया |

यह हमारी पहली मुलाकात थी 
पर कहीं न लगी ऐसी बात थी |

कुछ तबीयत,उनकी नासाज़ थी 
विदा हुए ,फिर कल मिलने के लिए 
यह हमारी पहली मुलाकात थी |

कल फिर मिले ,प्यार से एक शिकायत आई 
अशोकभाई ,क्यों तुमने अपने ब्लॉग पर 
फोटो अपनी पुरानी लगाई|

इसे फ़ौरन ब्लॉग से हटाओ 
वीरुभाई 
ओर आज की अपनी फोटो लगाओ |

दूर उनकी शिकायत भगाई, इसलिए
पुरानी हटा के ,आज की हमने लगाई |

फिर से विदा हुए ,फिर से मिलने के लिए 
अशोक 'अकेला'
वादा करके अशोकभाई से अपने वीरुभाई ||

आप सब भी खुश और 
स्वस्थ रहें !
शुभकामनाएँ! 
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