Monday, March 26, 2018

जीवन नाम है ...पतझड़ का...

दास्ताँ.... पेड़ से बिछुड़े सूखे पत्ते की
तन से उतरे आत्मा रूपी ...कपड़े लत्ते की ...
-अकेला
जीवन नाम है ...पतझड़ का...
फिर पतझड़ में, पत्ता टूटा
शाख़ से उसका, नाता छुटा,
जब तक था, डाली पे लटका 
न जान को था, कोई भी खटका..

अब कौन करें उसकी रखवाली
रूठ गया जब बगिया का माली..

क्यों सूख के नीचे गिरा मैं 
मैं किसी का क्या लेता था,
धूप में छांव ,गर्मी में हवा
मैं हर राहगीर को देता था..

अब किस पर छांव बनाऊंगा
अब पैरों में, रोंदा मैं जाऊंगा..
 
अब झाड़ू से बुहारा जाऊंगा
फिर मिटटी में मिल जाऊंगा, 
अब पानी में गल जाऊंगा
आग लगी, मैं जल जाऊंगा..

जिस मिट्टी में जन्मा था,
उसी में फिर दब जाऊंगा..

जब बरसे गा, मुझ पे पानी
लौट के मैं, फिर आ जाऊंगा,
यही है जीवन-मरण का नाता
रचे जो इसको, उसको कहते,
कर्ता-धर्ता सब भाग्य-विधाता....

अशोक"अकेला"
 

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