आंखों-देखी दास्तां, श्मशान की ... अपनों के साथ, किसी अपने को छोड़ने मैं श्मशान गया बड़ा ही परेशान था जिंदगी से वो, जो आज जहाँ से गया पहुंचे वहां सब अपने, आखरी रस्मों पर उलझे पड़े थे कोई अपना, अर्थी पर आंसू बहा रहा था कोई अर्थी को, घी लकड़ी से सज़ा रहा था कोई इसको मंजिल जिन्दगी की, आख़री समझ रहा था और कोई बड़ा बुढ़ा बात ये, दूसरों को समझा रहा था कोई वहां बैठा, शून्य में अकेले ही बड़बड़ा रहा था कोई हाथ की ओट में, मोबाइल पर फुसफुसा रहा था कोई जोड़े हाथ, सूनी आंखों में डबडबा रहा था कोई चेहरे को अपने, बस ग़मगीन बना रहा था किसी को कुछ न समझ पाने का, पछतावा था और किसी के चेहरे पर बस, सिर्फ़ दिखावा था किसी को वहां से, जाने की भी जल्दी थी देख घड़ी की सुई, बार बार घबरा रहा था माथे पर आई, पसीने की बूंदों को मिटा रहा था और किसी के, न आने के बहाने बता रहा था जवां धूप के चश्में में भी, फैशन दिखा रहा था बुढापा चलने में, लाठी का संग निभा रहा था बस ऐसे ही वहां पर, आना जाना लगा था हम जो चल कर आये थे, अपने दो पैरों पर कोई एक आध, चार कंधों पर भी आ रहा था वहां पर सब, अपने अपने रिश्ते जता रहे थे कुछ रो रहे थे, कुछ ज़ोर से दहाड़े लगा रहे थे कैसे हैं ये रिश्ते और कैसे ये नाते बड़े-बूढ़े कुछ ऐसा भी समझा रहे थे सुलाते थे जो कल तक, रेशमी बिस्तर पर वो ही आज, लकड़ी का बिस्तर बिछा रहे थे बचाते थे, जो कल तक कड़ी धूप से भी उसको वो अपने ही आज उसको आग में जला रहे थे कुछ है देर में, वो निर्जीव शरीर जल रहा था जो मिट्टी का था, वो मिट्टी में ढल रहा था कुछ चिल्ला रहे थे, तू क्यों हम से नाता तोड़ गया सुकून में तो बस वो था, जो सब को रोता छोड़ गया। अब सब के वहां से, लौटने की बारी थी वो हाथ जोड़ जनता, लाइन में खड़ी सारी थी गर्दन झुकाए, जाते जाते सोच रहे थे सब क्या हम को भी, कल यही आना पड़ेगा आज जा रहे हैं जो हम, दो पैरों पे वापस क्या हमें भी चार कंधों पे, वापस आना पड़ेगा ये सोचते सोचते, बाहर निकलते ही सब बिखर गये बैठ गाड़ी में अपनी, कुछ इधर गए और कुछ उधर गए... ये जिंदगी का सफ़र है यूं ही बस चलता रहेगा यूँ ही कोई आता रहेगा यूँ ही कोई जाता रहेगा... --अकेला |
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Tuesday, September 04, 2018
आंखों-देखी दास्तां, श्मशान की ...
Sunday, July 01, 2018
मेरी वो आरज़ू......जो हो सकी न पूरी ????
ब्लागिंग दिवस पर कुछ अपने मन की.....
मेरी वो आरज़ू......जो हो सकी न पूरी ????
काश! मैं भी माँ के आँचल की, छाया में सोता
खूब जी भर खिलखिलाता, फिर कभी खुल के रोता
पर ऐसा हो न सका ....
काश! मेरी भी कोई छोटी, बड़ी, एक बहन होती
फेर सर पे ममता का हाथ मेरे, वो खूब रोती
पर ऐसा हो न सका ....
काश! मेरा भी कोई, भाई तो होता
रख के सर जिसके कंधे पर, मैं खूब रोता
पर ऐसा हो न सका .....
काश! वो दोस्त मेरा, जो आज भी होता
लगा सीने से मुझे, मेरे जख्म धोता
पर ऐसा हो न सका .....
--अशोक'अकेला'
Monday, March 26, 2018
जीवन नाम है ...पतझड़ का...
दास्ताँ.... पेड़ से बिछुड़े सूखे पत्ते की
तन से उतरे आत्मा रूपी ...कपड़े लत्ते की ...
-अकेला
जीवन नाम है ...पतझड़ का...तन से उतरे आत्मा रूपी ...कपड़े लत्ते की ...
-अकेला
फिर पतझड़ में, पत्ता टूटा
शाख़ से उसका, नाता छुटा,
जब तक था, डाली पे लटका
न जान को था, कोई भी खटका..
अब कौन करें उसकी रखवाली
रूठ गया जब बगिया का माली..
क्यों सूख के नीचे गिरा मैं
मैं किसी का क्या लेता था,
धूप में छांव ,गर्मी में हवा
मैं हर राहगीर को देता था..
अब किस पर छांव बनाऊंगा
अब पैरों में, रोंदा मैं जाऊंगा..
अब झाड़ू से बुहारा जाऊंगा
फिर मिटटी में मिल जाऊंगा,
अब पानी में गल जाऊंगा
आग लगी, मैं जल जाऊंगा..
जिस मिट्टी में जन्मा था,
उसी में फिर दब जाऊंगा..
जब बरसे गा, मुझ पे पानी
लौट के मैं, फिर आ जाऊंगा,
यही है जीवन-मरण का नाता
रचे जो इसको, उसको कहते,
कर्ता-धर्ता सब भाग्य-विधाता....
अशोक"अकेला"
शाख़ से उसका, नाता छुटा,
जब तक था, डाली पे लटका
न जान को था, कोई भी खटका..
अब कौन करें उसकी रखवाली
रूठ गया जब बगिया का माली..
क्यों सूख के नीचे गिरा मैं
मैं किसी का क्या लेता था,
धूप में छांव ,गर्मी में हवा
मैं हर राहगीर को देता था..
अब किस पर छांव बनाऊंगा
अब पैरों में, रोंदा मैं जाऊंगा..
अब झाड़ू से बुहारा जाऊंगा
फिर मिटटी में मिल जाऊंगा,
अब पानी में गल जाऊंगा
आग लगी, मैं जल जाऊंगा..
जिस मिट्टी में जन्मा था,
उसी में फिर दब जाऊंगा..
जब बरसे गा, मुझ पे पानी
लौट के मैं, फिर आ जाऊंगा,
यही है जीवन-मरण का नाता
रचे जो इसको, उसको कहते,
कर्ता-धर्ता सब भाग्य-विधाता....
अशोक"अकेला"
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