Wednesday, December 28, 2011

आप सब को मुबारक ....नया साल ... नया पैग़ाम ....२०१२.


एक साल में जो पढा ,समझा ,जाना और 
जो महसूस हुआ....!!!
पुराना अस्त होता है 
नया उदय होता है 
यही जीवन का सार है 
इसी में जीवन व्यस्त होता है ||
वाह ! री टिप्पणी ...तेरे खेल
निराले...???

तुझ को पाने के लिए ,
लेखकों ने क्या-क्या
लेख लिख डाले !
पर कहना मुश्किल है  
होगी तू किसके हवाले | 

जो लिखेगा बढिया लेख
या दूसरों के लिखे पे देगा ,
बढिया टिप्पणियों के निवाले !
बड़े-बड़े लेखकों ने दुबारा न आने के 
अपने दावे ठोक डाले !

फिर हो गये उनके दर्शन 
गिरे कभी इधर, इसके पाले 
कभी गिरे उधर, उसके पाले |
बांटते रहे ,कभी गुस्सा 
कभी खिझाहटऔर कभी ताने ,
लौट के फिर आ गये ब्लाग पर 
कर के सौ सौ बहाने !

हर लेखक को भूख है 
टिप्पणी की किश्तों की .
चमक अभी बाकी है यहाँ 
आभासी रिश्तों की !
कुछ चेहरे ऐसे है ,
जो हर लेखक को
खुश करते नजर आते है !
अपनी दी टिप्पणी से 
उनका होंसला बढ़ाते है|

कुछ अच्छा लिखने वाले ,
अपने अच्छा लिखने पर 
ही विवादों में पड़ जाते है |
फिर अपनी बेबसी
पर तिलमिलाते है ,
गुस्सा भीं करते है ,
फिर जल्दी ही 
आभासी रिश्तों से 
माफ़ी भी मांगते 
नजर आते है |

ज्ञान बाँटने के लिए 
ज्ञान लेने वाला भी जरूरी है |
इक-दूजे के बगैर ,दोनों बेकार 
फिर काहे की आपस में जी-हजूरी है |
जय आभासी रिश्तों की 
जय टिप्पणी की किश्तों की ||

आभासी रिश्तों से अपील ...
चलो फिर आभासी रिश्तों के दोस्तों 
कुछ मुझ को सुनो ,कुछ अपनी सुनाओ 
नए साल में और नए रिश्ते बनाओ  
बस ! खुश रहो और मौज मनाओ||

मेरे साथ आप सब भी करें ....
आने वाले नव-वर्ष २०१२ का ,आँखों 
में बसे नए सपनों के साथ स्वागत ..
जाने वाले २०११ को आँखों में बसी 
नमी के साथ मौन विदाई .......!





अशोक'अकेला'




Wednesday, December 21, 2011

जब हम जवां थे .....तब रोमांस में भी रोमांच था..... !!!









यादें.....!!!
"यू उठा तेरी यादो का धूआँ
जैसे चिराग बुझा हो अभी अभी"


क्यों याद आता है ,वो गुज़रा ज़माना
 जो नामुमकिन है,लौट के वापस आना |

 वो ठंडी रातों की, हसीं मुलाकातें
 वो दबे पांव तेरा, छत पे आना |

 वो कंपकपाती सर्दी ,थरथराते होंट
 कनखियों से देख,हौले से मुस्कुराना  |

 वो हाथों से मेरे, तेरी ओढ़नी का खींचना
 तेरा झटके से मेरी, बाँहों में आ के समाना  |

 वो एकटक मेरा, तेरी आँखों में देखना
 तेरा शर्म से अपनी, उठी पलकें झुकाना |

 वो रौशनी का दिखना, सीड़ियों पे आहट
 सुन! आ जाता आवाज़ तेरी में हकलाना |

 वो हल्के में फिसलना, मेरी बाँहों से तेरा
 फिर फुर्ती से सीड़ियों में, भाग के जाना |

 वो तेरे जाने के बाद, लगे अधूरी मुलाकात 
 याद आ गई बातें, जो रह गई तुझे सुनाना |

 वो भूल गया सब, अब! जब रह गया "अकेला"
 वक्त ने ले ली करवट, अब न चले कोई बहाना ||

अशोक"अकेला"



Sunday, December 18, 2011

यादें .......फिर इंतज़ार... फिर यादों के साथ इंतज़ार...

.....इंतज़ार के बाद फिर यादें ........
ये सिलसिला बस यू ही चलता रहता है ....!!!
और आज अपनी यादों को  साँझा कर रहा हूँ ..
आप सब के साथ शायर "ज़नाब नासिर काज़मी
और गुलूकारों के बादशाह ज़नाब गुलाम अली साहब "की
मीठी ,मदमस्त और रूहानी आवाज़ का सहारा लेकर ....
तो आप भी सुनिए ....उनकी रूहानी आवाज़ में ये सुहानी
यादें ....जी कभी न कभी हम सब के दिलों में भी यादों के
रूप में उभरती है .जिन्हें याद करने को दिल करता है ,याद
आने पर दिल में एक मीठी से कसक ,हुक ,बेचैनी और एक
मस्ती भरा सुकून सा मिलता है .....???
चलिए ,सुनते हैं एक सुकून भरी मीठी  आवाज में एक गज़ल|
और डूब जाइए अपनी मीठी यादों में .........

       फिर सावन ऋतु की पवन चली ,तुम याद आए 
फिर पत्तों की पाज़ेब बजी ,तुम याद आए||


फिर कागा बोला ,घर के सुनें आँगन में 
फिर अमृत-रस की बूंद पड़ी ,तुम याद आए ||


फिर गूंजे बोली ,घास के भरे समंदर में 
ऋतु आई पीले फूलों की ,तुम याद आए ||


दिन भर तो मैं दुनियां के धंधों में खोया रहा 
जब दीवारों से धूप ढली ,तुम याद आए || 


फिर सावन ऋतु की पवन चली ,तुम याद आए 
फिर पत्तों की पाज़ेब बजी ,तुम याद आए||


ज़नाब गुलाम अली साहब  
शायर: नासिर काज़मी 

Wednesday, December 14, 2011

हमें कब था, ऊनके वादो पे एतबार पर एतबार किया,और बार बार किया॥ अज्ञात




"इंतज़ार ...."
इंतज़ार अभी ,इंतज़ार अभी ,इंतज़ार अभी
 न फिर कभी,न फिर कभी बस इंतज़ार अभी |

 दिल जब किसी की इंतज़ार में, भटकता है
 अपनी जगह छोड़ मुट्ठी मेरी, में धड़कता है|

 हज़ार बार कस्म खाई, न इंतज़ार करने की
 हर-बार तोड़ी कस्म इंतज़ार करके, न करने की|

 अब इज़हार कर दिया हमने, उनको ये इकरार करके
 तुम्हारे इंकार को न मनाएंगे ,और अब इंतज़ार करके|

 बड़ी मुद्दत से इंतज़ार था उसके आने का
 वो आये तब ,जब वक्त था हमारे जाने का|

 इंतज़ार करके जब थक गई, ये आँखे 
 जां तो निकल गई ,खुली रह गई, आँखे|

ये माना,  इस इंतज़ार से सब को एलर्जी है
 पर अफ़सोस चलती इसी की मर्ज़ी है|


जैसे जामे- मीना की, जान...ये,  साकी है 
इंतज़ार है ! तो उम्मीद भी, अभी  बाकी है....||


अशोक'अकेला'






Saturday, December 10, 2011

साडे वेड़े आया कर यार सुबहो-शाम... दोस्त सुबहो-शाम ....


आज मैं आप को सुनवाता हूँ ...अपनी पसंद का एक "बाबा बुलेह शाह का
पजाबी  सूफ़ियाना कलाम" ....आबिदा परवीन की  सूफ़ियाना आवाज़ में ...
गुलज़ार साहब कहते है "आबिदा को सुनो तो ध्यान लग जाता है , इबादत शुरू हो जाती है
कोई उनको सामने बैठ कर सुनें, तो आँखे अपने आप बंद हो जाती हैं,
आंखे खोलो तो, वो बाहर नज़र आती है ,
आँखे मूंदो तो वो दिल के अंदर नज़र आती हैं "
मुख़्तसर सी बात है ....
रब,परमात्मा, भगवान या खुदा
अगर इसको पाना है तो ,पाक,पवित्र और मासूम दिलों में झाँकों और
उसे पाओ न कि किसी मंदिर या मस्जिद में |
अगर खुदा सिर्फ सुबहो-सवेरे नहाने ,जंगल में घूमने ,से मिलता तो
सबसे पहला ह्क़ पानी में हर दम रहने वाले जीव-जन्तुओ का होता ,
जंगल-जंगल घूमने वाले जानवरों का होता |
पुजारियों को मिलता उनका भगवान ,जो रोज सुबह मंदिर का घंटा बजाते है ,
और आरती उतारते है ,किसी मौलवी को मिलता उनका  खुदा,  जो हर रोज मस्जिद में
आज़ान और न जाने  कितनी दफा नमाज अत्ता करता है ....पर .नही ..?
बाबा बुलेह शाह ने  फ़रमाया है कि ......
बेशक मंदिर-मस्जिद तोड़ो,पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो
इस दिल में ,दिलबर रहता ....खुदा,परमात्मा दिलों में बसता है ,
इस लिए कुछ भी तोड़ो,पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो .....
उसी में सिर्फ रब बसता है .......
कहते है ,संगीत की कोई भाषा नही होती ,कोई सरहद नही होती ,ये हर बंधन से आज़ाद
होता है| भले ही ये पंजाबी ज़ुबान में है ,पर ये आप के दिलों तक जरूर
पहुंचेगी,क्योंकि ये दिल से निकली ,दिल की आवाज़ है.....
आप भी सुनिए ....बाबा बुलेह शाह का ये सूफी कलाम
आबिदा परवीन की सूफ़ियाना आवाज़ में ::साडे वेड़े  आया कर यार सुबहो-शाम
दोस्त सुबहो-शाम ....











Wednesday, December 07, 2011

एक शानदार रूमानी शख्सियत का शानदार अंत .....


यादें!!! उन गुज़रे हसीं पलों की .....


देव आनंद  साहब .......जो अब हमारे बीच नही रहे ....
Sept.1923----2011 Dec.

उस शानदार रूमानी ,जिंदादिल और जानदार शख्सियत
के हसीन मालिक के बारे  में कुछ लिखना मेरे
बस की बात नही........!
हमारे समय के सबसे खूबसूरत ,सब के दिलों की धडकन,
जवां पीढ़ी की नस-नस में बसे ,छोटे-बड़े ,युवक,युवतियों के
एक मात्र रोमांटिक और स्‍टाइलिश   नायक थे वो ......
उनके शरीर में बिजली का करंट दोड़ता था ,एक जगह
टिकना ,रुकना या खड़े होना तो उनको आता ही नही था |
ऊँची-नीची, ढलान ,पहाड़ ,समतल .जंगल या रेतीला मैदान जो भी
हो ,चलना ,भागना ,दौडना और बोलना सब फ़टाफ़ट......
और अंत में...! वो गए भी ऐसे ही,न कोई बीमारी ,न किसी
से तीमारदारी ,अंत तक अपनी कर्म-भूमि की सेवा में
कर्म करते-करते फ़टाफ़ट ये जा... और वो जा ......
इससे ज़्यादा और शानदार अंत क्या होगा ...?
इस चुल-बुले नायक को अपने,फुर्तीले भागते-दौड़ते और अनोखे
अंदाज़ में इस गीत में अपने अभिनय को निभाते
हुए सुनिए और देखिये ..........

हम सब चाहने वालों की तरफ से उनको एक
  भाव-भीनी विन्रम श्रद्धांजलि.....

फिल्म: काला बाज़ार
वर्ष : १९६०
अदाकार : देव आनंद साहब
गायक: रफ़ी साहब
संगीत : सचिन देव बर्मन
        सहनायका:वहीदा रहमान

रफ़ी साहब 

Wednesday, November 30, 2011

मैं रास्ते में पड़ा पत्थर हूँ....

"मील का पत्थर"

मैं रास्ते में पड़ा पत्थर हूँ 
निगाहों में आपकी बद्त्तर हूँ 
न देख मुझको,तू नफ़रत से
देखता हूँ, सब को,  इस हसरत से
  
न मार मुझको ठोकर तू   
हो न जाये कहीं चोटल तू  
प्यार से मुझको उठा  तू 
किनारे पे रख,के जा तू 

खुद को ठोकर से बचा तू  
दूसरों के लिये रास्ता बना तू

खुद भी बच,और मुझको बचा तू 
दिल का सुकून भी पायेगा तू 
जो गै़र  की ठोकर से 
मुझ को बचायेगा  तू 

फिर मैं भी "मील का
 पत्थर" बन जाऊंगा 
सब के लिये निशानी 
बन के काम आऊंगा

किसी भटके मुसाफिर को 
मंजिल का पता बताऊंगा ||


अशोक'अकेला'







Wednesday, November 23, 2011

हम को किस के ग़म ने मारा ...ये कहानी फिर सही !!!

किस ने तोड़ा दिल हमारा ,ये कहानी फिर सही ......

यादें .... जब सर्दी का मौसम दरवाज़े पे दस्तक देता है,
सर्द हवाएँ चलने का अंदेशा जगाता है,तब एक बार फिर
कुछ भूली-बिसरी यादें ...ताज़ा होने को बेताब हो जाती है !
दिलो-दीमाग पर अपनी छाप छोड़ने को ...

और फिर, जब लफ्‍ज़ो  का सहारा नही मिलता ,ज़ुबां गुंगी हो जाती है !
तब किसी और की जुबां ओर लफ्जों का सहारा लेना पड़ता है |
....चलिए ये कहानी फिर सही |

आज ज़नाब गुलाम अली साहब को सुनते हैं ...उनकी मीठी
आवाज़ में ..हम सब की शिकायत ...उनके दिलकश और प्यारे
अंदाज़ में ....पेशे खिदमत है ये गज़ल ! मेरी पसंद यकीनन
आप सब की भी ....होगी ???

शायर :मसरूर अनवर साहब:-
दिल की चोटों ने कभी, चैन से रहने न दिया
जब चली सर्द हवा ,मैंने तुझे याद किया
इसका रोना नही, क्यों तुमने किया दिल बर्बाद
इसका ग़म है, कि बहुत देर में बर्बाद किया |
मैं नाचीज़,ज़नाब गुलाम अली साहब के रूबरू 










Monday, November 14, 2011

घने जंगल में ...सूखे कुँएं की टूटी मुंडेर ...




"कुँएं  की टूटी मुंडेर"


मैं घने जंगल में सूखे कुँएं  की
 टूटी हुई मुंडेर हूँ ...

प्यास बुझाने का वायदा तो..
 मैं करता नही पर रात की
 थकान मिटाने की मैं सवेर हूँ 
 अँधेरे में तो क्या ,दिन के उजाले में
 छन-छन के आती पेड़ों की रौशनी में
 सूखें पत्तों से भरा
 मैं एक घना ढेर हूँ ...

 कभी कोई भुला-भटका
 मुसाफिर आयेगा बैठेगा 
थोड़ी देर मुझ पर ...
प्यास तो नही थकान
 अपनी जरूर मिटायेगा|
 थोड़ी देर में चल देगा उठ कर
 न  देखेगा कभी पीछे मुड़  कर...

 न होगी हसरत फिर कभी इधर आने की
 सिर्फ जल्दी होगी उसे यहाँ से निकल जाने की

 ऐसे ही कटेगा वक्त मेरा
  फिर दिन भी ढ़ल जायेगा
  डर लगता नही अब अँधेरे से
 इंतज़ार में हूँ न जाने मुझे कब
 ये अँधेरा निगल जायेगा...

 मुझ सूखे कुँएं  की टूटी मुंडेर पर 
 न जाने कब कोई हाथ रख के  
  ठोकर खाने से सम्भल जायेगा ||


अशोक'अकेला'



Saturday, November 12, 2011

ऐ महोब्बत तेरे ,अंजाम पे रोना आया ....


जाने क्यों आज, तेरे नाम पे रोना आया .......
"यादें करूँगा ,अपनी ताज़ा
दिल आपका बहलाऊँगा
इसी बहाने अपनी पसंद 
आप को सुनवाऊंगा" ....

यादें हैं  ....यादों का क्या !अब इस उम्र में तो यादें ही आएँगी न ...?
पर बहुत अच्छा लगता है इन यादों के याद आने से ....कुछ समय के 
लिए ही सही...यह यादें ...याद दिला जाती है ....गुज़रे उन हसीन पलों की ..
जब  ऐसी ग़ज़ले कभी हमने भी गुनगुनाई थी ..भले ही अच्छे मूड  में न सही ..
अब अच्छे मूड  में यह गाने कौन गाना पसंद करेगा भला .......
पर यह भी सच है ...की हर उस शक्स को जो इस मंजिल पर चलेगा ...
अपनी मंजिल पाने तक किसी न किसी पढाव पर ऐसे,गीतों,ग़ज़लो  को 
गुनगुनाना  ही पड़ेगा...क्यों ?
तो आप भी सुनिए ....बेग़म  अख्तर की गाई यह ग़ज़ल  ....अच्छी 
लगेगी ....चाहे आपने कभी गुनगुनाई हो  या नही .......









Saturday, November 05, 2011

आइए....मेहरबां ,बैठिए जाने-जां....


शौक से लीजिए जी .....इश्क के इम्तहाँ...


"कभी कभी ऐसे भी गुन-गुना लेना चाहिए 
हो मौसम सुहाना तो मुस्करा लेना चाहिए"

यादें .... आज आप को सुनवाता हूँ....
अपने.... (और मेरे) समय का एक खूबसूरत चुल-बुला गीत 
जो अपनी मद-होश ,मस्त आवाज़ में गाया है!
आशा जी ने| 
और जिसको सिनेमा के पर्दे पर साकार किया है ...
अपने समय की सबसे खूबसूरत ,शोख और चंचल 
अदाकारा मधुबाला जी ने...
इस गीत में मधुबाला जी ने जिस खूबसूरती से अपनी 
मदमस्त आँखों से और अपनी दिलकश मुस्कान से अपने 
चाहने वालों को बैठने और इश्क का इम्तहाँ लेने का 
न्योता दिया है ....वो बस देखने और सुनने से ही तआल्लुक़
रखता है ....तो आप भी देखिए,सुनिए और कुछ देर के लिए 
खो जाइये अपनी गुज़री सुहानी यादों में ..... 

फिल्म: हावड़ा ब्रिज 
वर्ष: १९५८
संगीतकार : औ.पी.नैयर
गीतकार: कमर जलालाबादी 
आवाज़ : आशा जी 
सह:कलाकार : अशोक कुमार ,के एन सिंह आदि 

Tuesday, November 01, 2011

हाथों की लकीरों पे, एतबार न मैं करता था...


बस!वो मेरे माथे की, लकीरों को पढता था ||


यादें ...वो ...जिनके साथ मैं चलता हूँ ....

(अपने बचपन के...!!! दोस्त इन्दर को समर्पित)
मेरा दोस्त , मैं और हमारा बचपन

मैं और मेरा दोस्त 
मैं और मेरा दोस्त 
मैं और मेरा दोस्त 

अशोक और इन्दर
और
इसके बाद वो खो गया...न मिलने के लिए ...

पुराने जख्मों से आज, फिर टीस निकल आई है
 अतीत झाड-पोंछ कर,मुझे फिर तेरी याद आई है |


 याद आ गया ,मिल के रूठना और मनाना वो
 बड़ी निकली रे जालिम ,तेरी यह जुदाई है |


 छोड़ के चल दिया ,साथ मेरा;अंजाने रास्तों पे
 तोड़ के अपने, वादे निकला;तू बड़ा हरजाई है |


 करता रहा उम्मीद, तुझसे मैं;भरपूर वफा की
 क्या कसूर?करी जो तुने;मुझसे ऐसी बेवफाई है |


जब भी उदास होता हूँ ,बस तुझे ही याद करता हूँ 
 याद करके तुझे ,आज फिर मेरी आँख भर आई है |


 मिसाल थी हमारी दोस्ती की, उन सबके वास्ते
 छोड़ मुझे "अकेला" करी दोस्ती की जग-हँसाई है |


अशोक'अकेला'








Wednesday, October 26, 2011

मेरे एहसास ,मेरे दिल की आवाज़ ......















आप सब को दीपावली और भाई-दूज के 
पावन-पर्व पर बहुत सारा स्नेह ,प्यार और 
शुभकामनाएँ....


"कुछ खट्टी .कुछ मीठी 
कुछ सच्ची .कुछ तीखी" ||

मेरे दिल की आवाज़ ....














कितने प्यारे ब्लाग के रिश्ते ,यह जो बने  आभासी 
इक टिप्पणी पा होते खुश ,न मिले छा जाये उदासी |

प्यार सब को दिया करो ,टिप्पणी की न फ़िक्र करो 
इन सब बातों से उपर है, यह छोटी बात!  जरा-सी |

अपनी-अपनी ढपली और  अपना-अपना राग 
कोई लिखे यहाँ कविता ,कोई सुनाए भीम-प्लासी |

सियासत से भरी है, यह सारी  दुनिया 
अपनी-अपनी चाल चले, यहाँ सब सियासी |

कभी-कभी पर, देख बेढंगी इनकी चाले 
दिल मेरा बोले, बन जाऊ अब सन्यासी |

तब पछताऊं,छोड़ के क्यों मैं अपना घर 
सोचूं में! क्योंकर  यूँ बना बनवासी |

बहन, बेटी, दोस्त मुझे मिले यहाँ सब 
सब बहुत ही प्यारे, यहाँ के निवासी |

मैनें देखी नफरत बड़ी ,दुनियां इस से भरी  पड़ी 
बस बुझे ,प्यार की प्यास, न रहे अब कहीं उदासी|

पर अब भी ढूंढे ,मेरी यह अखियाँ अपनी माँ को 
जिनके दरस को जीवन भर, तडप रही यह प्यासी |

दोनों हाथ जोड़ मांगूं माफ़ी सारे जग की माँ से  
माफ करो हे माता घंटे वाली अस्सी-चार चौरासी
|
कितने प्यारे ब्लाग के रिश्ते ,यह जो बने आभासी .... अशोक"अकेला"

दिवाली मुबारक हो ...२०११.
आप सब खुश और स्वस्थ रहें !!          

Tuesday, October 18, 2011

यूँ न रह रह कर हमें तरसाइए ....


आइए! आ जाइए!  आ जाइए||


यादें .... आज मैं आप के लिए ...अपनी यादों के खज़ाने से ढुंढ के लाया हूँ !
एक बहुत पुरानी ग़ज़ल  या यूं कह ले कि अपने से भी पुरानी और इस ग़ज़ल 
को गाने वाले मेरे से १५ साल पहले पैदा हो चुके थे |

इस ग़ज़ल  को गाने वाले मास्टर मदन  जो १९२७ में जन्में ,१९३५ में  यह  ग़ज़ल 
उनके मुहँ से निकली और १९४२ में वो छोटी सी उम्र में  इंतकाल फरमा गए |


पर इस छोटी सी उम्र में वो हम सब को दे गए अपनी रूह से गाए कुछ  नगमें |
जिनमें से सिर्फ आठ के करीब ही रिकार्ड हुए | उनमें से यह दो ग़ज़लें  बहुत ही ज्यादा
मकबूल हुई ,जिनमें से एक आज मैं आप की  नजर कर रहा हूँ | दूसरी फिर कभी ...
.
तो सुनिए उस कमसिन और रूहानी आवाज में यह ग़ज़ल  और खो जाइये उस आवाज में ...
तब .....जब आज की तकनीक नही थी और न ही आज के दौर का संगीत ,जिसमें एक
न अच्छा बोलने वाला भी अच्छे सुर में गा जाता है ...आज की तकनीक के पर्दे में छुप कर |
तब ....था सिर्फ आवाज का जादू जो सर पर चढ़ कर बोलता था और थे खूबसूरत अलफ़ाज़..
....और अलफ़ाज़ो की अदायगी.....

पेश है मेरी पसंद, आप की नज़र  ....इस उम्मीद के साथ कि यह आप की पसंद पर
भी खरी उतर कर, आप का भी दिल बहलाएगी ......
आवाज़ : मास्टर मदन
अलफ़ाज़: सागर नीज़ामी
साल :1935
(१९२७-१९४२)














यूँ न रह रह कर, हमें तरसाइए
 आइए, आ जाइए,  आ जाइए|

 फिर वही दानिस्ता, ठोकर खाइए
 फिर मेरी आग़ोश में, गिर जाइए|

 मेरी दुनिया, मुन्तज़िर है आपकी
 अपनी दुनिया छोड़,  कर आ जाइए|

 ये हवा,  `सागर, ये हल्की चाँदनी
जी में आता है, यहीं मर जाइए||

Thursday, October 13, 2011

देख और सुन रोज़ की महंगाई.....

फिर "यादें" अपनी पुरानी आई|| 


कहानी पुरानी....एक आने की!!! मेरी ज़ुबानी
यादें ....बचपन की!!!
यादें....किशोरावस्था की !!! 
यादें ..यादें ..यादें ही रह जाएँगी बस!!
इस अवस्था की ....???

एक  
क्या था वो भी, ज़माना सुहाना
चलता था जब, एक आना पुराना
एक रूपये में होते थे, चौंसठ  पैसे
दो पैसे का एक टक्का पुराना
दो टक्के  बनता,फिर  एक  आना 
चार पैसे की बने, एक इकन्नी 
दो इकन्नी मिल,  बने दुअन्नी 
दो दुअन्नी, या चार आने बने चवन्नी 

दो चवन्नी, मिल  बने  अठन्नी 
दो अठन्नी से, फिर बना  रुपैया
सो बाप बड़ा न भैया, भैया  
सब से बड़ा,  बना  रुपैया,
सो आने सोलह, का एक रुपैया 
  मानो न मानो, क्या था जमाना
  चलता था जब, एक आना पुराना ||
   दो                  
अब चलो चलाये हम इक आना 
दो आने की आ जाती थी भाजी-पूरी दो
एक आने में पुरे, दो केले लो  
  एक आने में मिल जाये गर्म समोसा 
हों चार आने तो खाओ इडली डोसा 
अब केसे हो ये मेल सुहाना
मानो न मानो, क्या था जमाना||

एक आने में मिलती थी चाय गर्म 
एक आने मिलती मट्ठी  साथ नरम 
याद है बचपन , वो स्कूल को जाना 
जेब खर्च में मिलता था, तब एक ही आना 
कहाँ गया वो वक्त सुहाना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||
गोल-गप्पे मिलते थे आने में छै और चार 
यह  आज हो गया उन पे कैसा वार 
यह  कैसी आ गई उन पर आंच 
आज मिले,  दस रुपये के पांच 
वाह भई वाह यह  कैसा जमाना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||

कुल्फी, छोले, बर्फ का गोला, कांजी-वडा 
डट के खाया मेने अपने, स्कूल में बड़ा 
भुट्टा, चाट,आम-पापड ,चूरण,छोले-भटूरे 
सब मिलता था एक-एक आने पुरे पुरे 
सच! नही कोई ये गप्प,  लगाना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||
पांच आने में पिक्चर देखो
चार आने में कोकाकोला 
देख के पिक्चर, बड गयी शान
मुहं में दबाया, एक आने के पान
अब सोचे क्या करें बहाना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||
तीन  
एक रुपया ग़र मिले कहीं से  
चल देते हम फिर वहीँ से
  आज काफ़ी  पिए जरूर 
न था स्टैंडर्ड हम से दूर 
आज निबाहेंगे हम याराना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||

मैं था वो था हम दोस्त पुराने 
बचपन बीता  हुए सियाने
पहुच गए हम कनॉट-प्लेस
लगा इक दूजे से हम  रेस 
अब क्यों और कैसा  घबराना
मानो न मानो, क्या था जमाना||

आठ आठ आने में काफ़ी  पी
बिस्कुट मिला साथ में हमें फ्री 
कोई डाले चवन्नी juke-box में
हम बस बैठे थे इसी आस में 
न पड़े कहीं ऐसे ही उठ जाना
मानो न मानो, क्या था जमाना||

अब पसंद अपनी का सुन रहे थे गाना
रफ़ी साहेब गा रहे थे अपना अफसाना  
परदेसियों  से  न  अखियाँ  लगाना 
परदेसियो को हैं  इक दिन जाना
चल ढूंढे अब अपना ठिकाना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||

रात हो गई अन्धयारी थी 
अब हमे बहुत लाचारी थी 
डी.टी. यु, की बस को देखा 
अब यही हमारी सवारी थी
सोचो घर क्या करें बहाना,   
मानो न मानो, क्या था जमाना||
चार
फिर याद आ रहा वो वक्त पुराना 
सुनाई दे रहा था जब ये गाना
बदला जमाना आहा बदला जमाना 
    छै नए पैसों का पुराना इक आना ||

अब न रहा वो दोस्त 
न रहा वो रूठना ,मनाना 
न रहा वो हसना ,रुलाना 
वापस न आयेगा दोस्त पुराना 
मानो न मानो, क्या था जमाना||

अब चारो तरफ है मौल ही मौल 
कुछ लेने से पहले जेब को तौल  
अब न आएगा वो वक्त पुराना 
क्या था वो भी वक्त सुहाना 
चलता था जब इक आना पुराना 
      मानो न मानो, क्या था जमाना ||
अशोक'अकेला'


                             
                                                  

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