कभी अश्क आँख से ढल गए
ये तुम्हारे ग़म के चिराग़ हैं
कभी बुझ गये कभी जल गए
कभी आह लब पे मचल गई .....
अपनी पसंद की एक निहायत खुबसूरत, दिलकश ग़ज़ल के साथ
आज फिर एक अर्से बाद ......हाज़िर हूँ आप की ख़िदमत में ....
जैसा .... कि आप सब जानते हैं ...??
कुछ ज़ज्बात दिल के ऐसे भी होते हैं ....जो हर शख्स
अपने सादगी भरे लफ्जों से मुकम्मल बयाँ नही कर सकता
जैसा वो ख़ुद उन्हें महसूस कर रहा होता है....
इस काबलियत से कुछ खास ही लोगो को उपर वाले ने अपने कर्म
से नवाज़ा है और वो काबलियत मैं नही रखता ....
पर दिल तो दिल है न ....वो तो बहुत कुछ कहना चाहता है ....
.बस उसके लिए मुझे तो एक ये ही रास्ता सूझता है ..
.कि अपने दिल की बात को .....किसी काबिल ,शख्स
के दिल को छूते नाज़ुक लफ़्ज़ों से और उसको महसूस करा सकने वाली
एक मीठी सुरीली, दर्द में डूबी आवाज़ से.... अपने दिल की आवाज़ को
आप तक पहुँचा सकूं ........
तो पेश है ....दिल को छूते नाज़ुक लफ्ज़ ज़नाब राशिद कामिल साहब के
और उनके अहसासों को महसूस कराती दिलकश ,दर्द में डूबी आवाज़ के
मालिक ज़नाब गुलाम अली साहब......
कभी आह लब पे मचल गई
कभी अश्क आँख से ढल गए
ये तुम्हारे ग़म के चिराग़ हैं
कभी बुझ गये कभी जल गए
कभी आह लब पे मचल गई .....
मैं ख्यालों-ख़्वाब की महफ़िलें
न बकद्रे-शौक सजा सका
तेरी इक नज़र के साथ ही
मेरे सब इरादे बदल गये
कभी आह लब पे मचल गई .....
कभी रंग में कभी रूप में
कभी छाँव में कभी धूप में
कहीं आफ़ताबे नज़र हैं वो
कभी माहताब में ढल गये
कभी आह लब पे मचल गई .....
जो फ़ना हुए ग़मे इश्क में
उन्हें जिन्दगी का न ग़म हुआ
जो न अपनी आग़ में जल सके
वो पराई आग में जल गये
कभी आह लब पे मचल गई .....
था उन्हें भी मेरी तरह जनून
तो फिर उनमें मुझमें ये फ़र्क क्यों
मैं गरिफ्ते ग़म से न बच सका
वो क्सुदे ग़म से निकल गये
कभी आह लब पे मचल गई....

उम्मीद करता हूँ .....कि मेरी पसंद आप के दिल
को भी सुकून देगी ....!!!
![]() |
अशोक सलूजा |
वाकई, ख़ूबसूरत गजल है सलूजा साहब !
ReplyDeleteबड़े सुन्दर शब्द व गज़ल..
ReplyDeleteआपकी रचना पढ़ने से थोड़ी देर पहले छत्तीसगढ़ अखबार पर नजर डाली, अखबार की सातवीं वर्षगांठ पर एक लेख सुनील कुमार ने लिखा था, पाठक ही अखबार बनाते हैं जैसे पाठक होते हैं वैसे अखबार, एक वाकया उन्होंने लिखा था गुलाम अली आए थे रायपुर, श्रोता उन्हें अच्छे नहीं मिले, उनकी गायकी में वो बात नहीं आई। अब आपका लिखा पढ़ रहा हूँ तो लग रहा है कि अगर आप वहाँ होते तो गुलाम अली साहब को सचमुच करार मिलता।
ReplyDeleteबहुत ही खुबसूरत गजल...
ReplyDelete;-)
लाजबाब बहुत उम्दा गजल ,,,
ReplyDeleterecent post: मातृभूमि,
khubsurat gazal...
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट की चर्चा 17-01-2013 के चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteकृपया पधारें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत करवाएं
बढ़िया बढ़िया बहुत बढ़िया....
ReplyDeleteशुक्रिया..
सादर
अनु
लाजबाब--गज़ल--
ReplyDeleteबहुत बढ़िया.....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया.लाजबाबब गज़ल--आभार..
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत गज़ल... आभार
ReplyDeleteबढ़िया ग़ज़ल!
ReplyDeleteविभोर करती गज़ल!
ReplyDeleteसुन्दर ग़ज़ल प्रस्तुति के लिए आभार।।।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति।
ReplyDeleteवाह ... बहुत खूब
ReplyDeleteवाकई नायाब, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
एक शानदार ग़ज़ल साझा करने के लिए हार्दिक आभार
ReplyDeleteBhut hi khoobsoorat gazal hai Gulam ali ki ye ...
ReplyDeleteBahut dino baad yaad kara di aapne ... Bahut shukriya ...
मेरी तो पसंदीदा गजलों में एक है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर, यादें ताजा हो गईं..
वाह अशोक जी वाह !
ReplyDeleteram ram bhai
मुखपृष्ठ
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बृहस्पतिवार, 17 जनवरी 2013
शख्शियत :हिना रब्बानी खार( पाकिस्तानी मैना )
तेरी इक नज़र के साथ ही
ReplyDeleteमेरे सब इरादे बदल गये
ओये होए ...!!
क्या बात है .....
कलेजे में ठण्ड पड़ गई वीर जी ....
शुक्रिया ..!!
बाऊ जी नमस्ते !!
ReplyDeleteक्या खूब ग़ज़ल है !!
बस ऐसे ही अपना आशीष देते जाईये !!
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Gift- Every Second of My life.
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...आभार
ReplyDeleteबहुत शानदार ग़ज़ल शानदार भावसंयोजन हर शेर बढ़िया है आपको बहुत बधाई
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