Thursday, January 24, 2013

क्या "दामिनी" का क़र्ज़ चुकाओगे ...???

अपने साधारण और सिमित शब्द ज्ञान से .....
विन्रम श्रद्धांजलि !!!
क्या "दामिनी" का क़र्ज़ चुकाओगे ...???
 मैं कौन थी ,सपना थी या कामिनी
 नाम रख दिया आपने मेरा दामिनी
 दरिंदों ने किया मेरी अस्मत पे वार
 कर के रख दिया दामन तार-तार

 सदियों से लुटती रही, हूँ मैं बार-बार
 देख कर तुमे ,कर लेती थी मैं एतबार
 क्या अब भी गफ़लत में सोते रहोगे
 नारी लुटती रहेगी और तुम रोते रहोगे

 क्यों करते हो रक्षा का वादा बार-बार
 क्यों मनाते हो रक्षा बंधन  का त्यौहार
 अब तो उठो,जागो, कुछ कर के दिखा दो
 मुझको मिटाने वालों दरिंदों की हस्ती मिटा दो

 माँ के दूध का वास्ता है ,अब तुम को
 अब मेरे बलिदान का ये कर्ज़ चुका दो
 नारी जाति को कलंकित करने वालों को
 अब उन का जड़ से तुम नाश मिटा दो

 क़र्ज़ चुकाओगे न जब तक ,न मैं
 तुम को कभी भी माफ़ कर पाउंगी
 मेरे बगैर नर जाति का वजूद क्या ,
 ग़र जो कभी मैं वापस न आउंगी .......

अशोक सलूजा 'अकेला'

Wednesday, January 16, 2013

कभी आह लब पे मचल गई...!!!


कभी अश्क आँख से ढल गए
ये तुम्हारे ग़म के चिराग़ हैं
कभी बुझ गये कभी जल गए
कभी आह लब पे मचल गई .....

        अपनी पसंद की एक निहायत खुबसूरत, दिलकश ग़ज़ल के साथ
आज  फिर एक अर्से बाद ......हाज़िर हूँ आप की ख़िदमत में ....
जैसा .... कि आप सब जानते हैं ...??
कुछ ज़ज्बात दिल के ऐसे भी होते हैं ....जो हर शख्स
अपने सादगी भरे लफ्जों से मुकम्मल बयाँ नही कर सकता
जैसा वो ख़ुद उन्हें महसूस कर रहा होता है....
इस काबलियत से कुछ खास ही लोगो को उपर वाले ने अपने कर्म
से नवाज़ा है और वो काबलियत मैं नही रखता ....
पर दिल तो दिल है न ....वो तो बहुत कुछ कहना चाहता है ....
       .बस उसके लिए मुझे   तो एक ये ही रास्ता सूझता है ..
       .कि अपने दिल की बात को .....किसी काबिल ,शख्स
के दिल को  छूते  नाज़ुक लफ़्ज़ों से और उसको महसूस करा सकने वाली
        एक मीठी सुरीली, दर्द में डूबी आवाज़ से.... अपने दिल की आवाज़ को
        आप तक पहुँचा सकूं ........
तो पेश है ....दिल को छूते नाज़ुक लफ्ज़ ज़नाब राशिद कामिल साहब के
        और उनके अहसासों को महसूस कराती दिलकश ,दर्द में डूबी आवाज़ के
        मालिक ज़नाब गुलाम अली साहब......

कभी आह लब पे मचल गई
कभी अश्क आँख से ढल गए
ये तुम्हारे ग़म के चिराग़ हैं
कभी बुझ गये कभी जल गए
कभी आह लब पे मचल गई .....

मैं ख्यालों-ख़्वाब की महफ़िलें
न बकद्रे-शौक सजा सका
तेरी इक नज़र के साथ ही
मेरे सब इरादे बदल गये
कभी आह लब पे मचल गई .....

कभी रंग में कभी रूप में
कभी छाँव में कभी धूप में
कहीं आफ़ताबे नज़र हैं वो
कभी माहताब में ढल गये
कभी आह लब पे मचल गई .....

जो फ़ना हुए ग़मे इश्क में
उन्हें जिन्दगी का न ग़म हुआ
जो न अपनी आग़ में जल सके
वो पराई आग में जल गये
कभी आह लब  पे मचल गई .....

था उन्हें भी मेरी तरह जनून
तो फिर उनमें मुझमें ये फ़र्क क्यों
मैं गरिफ्ते ग़म से न बच सका
वो क्सुदे ग़म से निकल गये
कभी आह लब पे मचल गई....



उम्मीद करता हूँ .....कि मेरी पसंद  आप के दिल
को भी सुकून देगी ....!!!
अशोक सलूजा 

Wednesday, January 09, 2013

बस!!! बेरुख़ी मुझको भाती नहीं .....

बस!!! बेरुख़ी मुझको भाती नहीं .....
 मायूस हूँ, उदासी अब मेरी जाती नही
 बहुत मनाया, बेरुख़ी उनकी भाती नही
 लाख चाहा, कभी वो भी मनाये मुझको
 आदत है उनकी, वो कभी मनाती नही  |

 सब समझाते हैं, आ-आ के मुझको ही
 क्या उनको कुछ, समझ आती नही
 कोशिशें नाकाम रहीं, भूलने की उनको
 यादेँ हैं उनकी,कि अब तक जाती नही  |

 माथे पे बिखरी, जुल्फों की वो घटाएं
 क्यों उसके चेहरे पे, अब छाती नही
 बड़ी हसरत से, देखता हूँ मैं उनको
 वो है कि अब, कभी मुस्कराती नही  |

 उसके गिले-शिकवे, मैं किससे करूँ
 बात है कि अब, लबों तक आती नही
 तरकश से तीर,जुबां से निकली बात 
 लौट कर कभी,वापस आती नही  |

 रात भर बरसा, मेरी आँखों से पानी
 क्यों "अकेला" प्यास उनकी जाती नही.......

अशोक 'अकेला'











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