अपने साधारण और सिमित शब्द ज्ञान से .....
विन्रम श्रद्धांजलि !!!
विन्रम श्रद्धांजलि !!!
क्या "दामिनी" का क़र्ज़ चुकाओगे ...???
मैं कौन थी ,सपना थी या कामिनी
नाम रख दिया आपने मेरा दामिनी
दरिंदों ने किया मेरी अस्मत पे वार
कर के रख दिया दामन तार-तार
सदियों से लुटती रही, हूँ मैं बार-बार
देख कर तुमे ,कर लेती थी मैं एतबार
क्या अब भी गफ़लत में सोते रहोगे
नारी लुटती रहेगी और तुम रोते रहोगे
क्यों करते हो रक्षा का वादा बार-बार
क्यों मनाते हो रक्षा बंधन का त्यौहार
अब तो उठो,जागो, कुछ कर के दिखा दो
मुझको मिटाने वालों दरिंदों की हस्ती मिटा दो
माँ के दूध का वास्ता है ,अब तुम को
अब मेरे बलिदान का ये कर्ज़ चुका दो
नारी जाति को कलंकित करने वालों को
अब उन का जड़ से तुम नाश मिटा दो
क़र्ज़ चुकाओगे न जब तक ,न मैं
तुम को कभी भी माफ़ कर पाउंगी
मेरे बगैर नर जाति का वजूद क्या ,
ग़र जो कभी मैं वापस न आउंगी .......
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अशोक सलूजा 'अकेला' |
बढ़िया आह्वान करती रचना सलूजा साहब ! मगर अफ़सोस कि इस देश में कुछ कथर हो पाने के आसार न के बराबर है !
ReplyDeleteआँखे है नम,दिल में है उम्मीद और आस अब भी बाकि है ||
ReplyDeleteबेहद भावभीनी कविता .. गंभीर प्रश्न उठाती .. काश हमें समझ में आये..
ReplyDeleteदिलको को झक झोर देने वाली बात कही आपने ,पर उन बेदिलों के पास दिल हों तब न ?-खुबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteNew post कृष्ण तुम मोडर्न बन जाओ !
मन को भिगो गयी हर पंक्ति....
ReplyDeleteदिल का दर्द कम होता नहीं...
सादर
अनु
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteदिल को झकझोरती खुबसूरत अभिव्यक्ति ,,,,
ReplyDeleterecent post: गुलामी का असर,,,
कलंकित अध्याय, काश इसे न भूलें ...
ReplyDeleteVery. Touching tribute
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावपूर्ण कविता, जब तक आप जैसे लोग हैं दामिनी के लिए आशा अभी बची हुई है। आभार
ReplyDeleteचेतना को जागना ही होगा।
ReplyDeleteसार्थक आह्वान।
बहुत सुंदर भावपूर्ण कविता,
ReplyDeleteशुक्रिया भाई साहब आपकी टिपण्णी का .
ReplyDeleteआपकी रचना में हर भाई को ललकारा गया है .मौलिक सवाल भी उठाया गया .औरत से ही कायनात का सब कार्य व्यापार चले है वह न हो तो ?
सटीक और भावपूर्ण ...
ReplyDeleteमार्मिक...मन को छूते भाव
ReplyDeleteकर्ज तो चढ़ा है, चुकाना ही होगा..
ReplyDeleteबहुत ही भावभीनी मार्मिक प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपका आवाह्न सही है यदि हम अभी भी ढीले पड़े तो यह सरकार कुछ करने वाली नहीं.
ReplyDeleteआप सभी को गणतंत्र दिवस पर बधाइयाँ और शुभकामनायें.
पहचान बनाना आरम्भ किया था ............. तुमने सब खत्म कर दिया
ReplyDeleteभावभीनी मार्मिक गंभीर कविता ..
ReplyDeleteसही कहा लेकिन दामिन का कर्ज ये भष्ट्र तंत्र लगता नही चुका पायेँगी
ReplyDeleteसही कहा लेकिन दामिन का कर्ज ये भष्ट्र तंत्र लगता नही चुका पायेँगी
ReplyDeleteक़र्ज़ चुकाओगे न जब तक ,न मैं
ReplyDeleteतुम को कभी भी माफ़ कर पाउंगी
मेरे बगैर नर जाति का वजूद क्या ,
ग़र जो कभी मैं वापस न आउंगी .......
उसके गुनहगारों को जब तक सजा नहीं मिलेगी तब तक उसकी आत्मा को चैन नहीं मिलेगा. उसका बलिदान व्यर्थ नहीं जाना चाहिए....
मार्मिक प्रस्तुति ....
ReplyDeleteदामिनी पर बहुत सी कवितायेँ पढ़ी पर इतने दिल से लिखी कोई न मिली .....
ReplyDeleteशुक्रिया ....
सदियों से लुटती रही, हूँ मैं बार-बार
ReplyDeleteदेख कर तुमे ,कर लेती थी मैं एतबार
क्या अब भी गफ़लत में सोते रहोगे
नारी लुटती रहेगी और तुम रोते रहोगे ..
प्रश्न मौन कर जाता है बार बार ... जवाब देते नहीं बनता ...
कब तक होगा अपने देश में ये सब ... संवेदनशील रचना ...
अक्षरश: मन को छूती हुई प्रस्तुति ...
ReplyDeleteआभार