Tuesday, September 04, 2018

आंखों-देखी दास्तां, श्मशान की ...


आंखों-देखी दास्तां, श्मशान की ...

 अपनों  के साथ, किसी अपने को छोड़ने मैं श्मशान गया
 बड़ा ही परेशान था जिंदगी से वो, जो आज जहाँ से गया

 पहुंचे वहां सब अपने, आखरी रस्मों पर उलझे पड़े थे
कोई अपना, अर्थी पर आंसू बहा रहा था
 कोई अर्थी को, घी लकड़ी से सज़ा रहा था

 कोई इसको मंजिल जिन्दगी की, आख़री समझ रहा था
और कोई बड़ा बुढ़ा बात ये, दूसरों को समझा रहा था
 कोई वहां बैठा, शून्य में अकेले ही बड़बड़ा रहा था
 कोई हाथ की ओट में, मोबाइल पर फुसफुसा रहा था

 कोई जोड़े हाथ, सूनी आंखों में डबडबा रहा था
 कोई चेहरे को अपने, बस ग़मगीन बना रहा था
किसी को कुछ न समझ पाने का, पछतावा था
 और किसी के चेहरे पर बस, सिर्फ़ दिखावा था

 किसी को वहां से, जाने की भी जल्दी थी
 देख घड़ी की सुई, बार बार घबरा रहा था
 माथे पर आई, पसीने की बूंदों को मिटा रहा था
और किसी के, न आने के बहाने बता रहा था

 जवां धूप के चश्में में भी, फैशन दिखा रहा था
बुढापा चलने में, लाठी का संग निभा रहा था

बस ऐसे ही वहां पर, आना जाना लगा था
हम जो चल कर आये थे, अपने दो पैरों पर
 कोई एक आध, चार कंधों पर भी आ रहा था
 वहां पर सब, अपने अपने रिश्ते जता रहे थे
 कुछ रो रहे थे, कुछ ज़ोर से दहाड़े लगा रहे थे

 कैसे हैं ये रिश्ते और कैसे ये नाते
 बड़े-बूढ़े कुछ ऐसा भी समझा रहे थे

 सुलाते थे जो कल तक, रेशमी बिस्तर पर
वो ही आज, लकड़ी का बिस्तर बिछा रहे थे
 बचाते थे, जो कल तक कड़ी धूप से भी उसको
 वो अपने ही आज उसको आग में जला रहे थे

 कुछ है देर में, वो निर्जीव शरीर जल रहा था
जो मिट्टी का था, वो मिट्टी में ढल रहा था
 कुछ चिल्ला रहे थे, तू क्यों हम से नाता तोड़ गया
 सुकून में तो बस वो था, जो सब को रोता छोड़ गया।

 अब सब के वहां से, लौटने की बारी थी
 वो हाथ जोड़ जनता, लाइन में खड़ी सारी थी

 गर्दन झुकाए, जाते जाते सोच रहे थे सब
 क्या हम को भी, कल यही आना पड़ेगा
 आज जा रहे हैं जो हम, दो पैरों पे वापस
 क्या हमें भी चार कंधों पे, वापस आना पड़ेगा

 ये सोचते सोचते, बाहर निकलते ही सब बिखर गये
 बैठ गाड़ी में अपनी, कुछ इधर गए और कुछ उधर गए...

 ये जिंदगी का सफ़र है
 यूं ही बस चलता रहेगा
 यूँ ही कोई आता रहेगा
 यूँ ही कोई जाता रहेगा...
 --अकेला

6 comments:

  1. जिंदगी से परे सच जो साथ ही रह जाता है

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  2. आज की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी का यही सच है... :(

    ये सोचते सोचते, बाहर निकलते ही सब बिखर गये
    बैठ गाड़ी में अपनी, कुछ इधर गए और कुछ उधर गए..

    ReplyDelete
  3. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १५ अक्टूबर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।



    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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  4. सामाजिक जीवन का सच बयां करती यथार्थपरक प्रस्तुति.

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  5. जीवन की सच्चाई है बहुत ही उम्दा रचना

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  6. कैसे हैं ये रिश्ते और कैसे ये नाते
    बड़े-बूढ़े कुछ ऐसा भी समझा रहे थे
    बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने ! इसके लिए आपका दिल से धन्यवाद। Visit Our Blog Zee Talwara

    ReplyDelete

मैं आपके दिए स्नेह का शुक्रगुज़ार हूँ !
आप सब खुश और स्वस्थ रहें ........

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