पंकज सुबीर जी ,
नमस्कार,आप के द्वारा दी हुई प्रेरणा से, एक प्रयास किया है ,कुछ लिखने का
सिर्फ अपने अहसासों को महसूस करके ,बस यही मैं कर सकता हूँ|गज़ल या गज़ल की बंदिशों से एक दम नासमझ ..... बस एक प्रयास
भर है ......
इक पुराना पेड़, है अभी तक गाँव में...
सावन के झूले भी पडतें, हैं अभी तक गाँव में
उस पर जो इक पुराना पेड़, है अभी तक गाँव में
उन रास्तो की मिटटी जो आती है मेरी तरफ़
प्यार से गले लगाती , है अभी तक गाँव में
पेड़ से बंधी घंटी भी बजती है उसी तरह
यूँ ही स्कूल भी लगता, है अभी तक गाँव में
याद बचपन की आती, गुज़रे उस माहौल की
शरारत रगों में बहती , हैं अभी तक गाँव में
उस तालाब की मछली की याद है मुझको अभी
तालाब का किनारा पुकारता , है अभी तक गाँव में
घर का मेहमान, सारे गाँव का मेहमान है
बरसों की रीत पुरानी, है अभी तक गाँव में
चबूतरे पर बैठती पंचायत आज भी पंचो की है
सुनवाई सब की बराबर होती, है अभी तक गाँव में
ये मेरा गाँव भारत का ,ये ही मेरा देश है
प्यार ही प्यार मिलता , हैं अभी तक गाँव में
मुझको आता देख "अकेला" रास्ते मुस्कराते हैं
राहें बाहों में लेने को मचलती , हैं अभी तक गाँव में||
----अकेला
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घर का मेहमान, सारे गाँव का मेहमान है
ReplyDeleteबरसों की रीत पुरानी, है अभी तक गाँव में
sundar bhaav se bhari ...bahut sundar rachna ....
shubhkamnayen.
सुन्दर रचना सर....
ReplyDeleteसादर.
बहुत सुन्दर......
ReplyDeleteजड़ों से जुड़ी रचना.......
सादर.
बेहतरीन पंक्तियाँ
ReplyDeleteइस शहर की फ़िज़ूल की भागदौड़ से दूर,
ReplyDeleteअभी भी सुकून बसता है मेरे गावं में....
शाम जो निकलो कभी अपने आँगन में,
ठंडी हवा चलती है मेरे गावं में......
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पापा, आपसे माफ़ी मांगता ही रहूँगा......
सुन्दर!
ReplyDeleteसादर नमन -
ReplyDeleteआपके स्वास्थ्य और कुशलक्षेम की नेक ईश्वर से प्रार्थना है-
सदर समर्पित यह तुरंती ||
दाना -पानी पा जाती हैं, जड़ें पेड़ की गहरी हैं |
हर साल कोंपलें आ जाती, "यादें" अहा सुनहरी हैं |
लच्छी-लौ बच्चे खेल रहे, पेंग मारते झूलों पर-
लो गाँव इकट्ठा आ बैठा, आई जेठ दुपहरी है |
कल सुबह डाल इक काट गया, पत्ते कोई छांट गया
जो केबुल कई लपेट गया, वो बन्दा कोई शहरी है |
साथी संगी सब चले गए, राम खिलावन भैया भी -
मंजूर हुई इक सड़क इधर, लगता साजिश गहरी है |
कुछ वर्षों में कमजोर हुआ, हो जाये गर दवा-दुआ
दस-बीस बरस तक और रहूँ, "रब" से सीधे ठहरी है ||
रविकर जी , नमस्कार और आभार !
Deleteआपने मेरे साधारण शब्दों को समझा ,और अपनी सुंदर कविता से उसमें मेरे भाव
संजो दीये जोकि मेरे लिए असंभव थे....आपकी कविता से गाँव की सोंधी मिटटी
की महक सी छा गई है ......
एक बार फिर ....
आभार !
yaadon ka yah ped atit ko khone nahin dega
ReplyDeleteघर का मेहमान, सारे गाँव का मेहमान है
ReplyDeleteबरसों की रीत पुरानी, है अभी तक गाँव में...वाह: क्या गहन बात कह दी..बहुत सुन्दर...
घर का मेहमान, सारे गाँव का मेहमान है
ReplyDeleteबरसों की रीत पुरानी, है अभी तक गाँव में
वाह ... अनुपम भाव संयोजित किये हैं आपने ...आभार
अभी भी सोंधी सुगंध मिलती,जो शहरों में नही,
ReplyDeleteआज भी हम मिल बाँट कर खाते है गाँव में,,,,,,
बहुत खूब,अशोक जी,,
इस सुंदर रचना के लिये बधाई ,,,,,
RECENT POST ,,,,,पर याद छोड़ जायेगें,,,,,
क्या बात है ! बहुत बढ़िया ग़ज़ल लिखी है अशोक जी .
ReplyDeleteकुछ बातें अभी तक सलामत है हमारे गाँव में !
घर का मेहमान, सारे गाँव का मेहमान है
ReplyDeleteबरसों की रीत पुरानी, है अभी तक गाँव में
हर शेर में अनुपम भाव हैं ... गाँव से जुड़े रहने की शिद्दत ... लाजवाब गज़ल के शेर ... पंकज जी कों भी नमन है ...
bahut badhiya ......bhawon se bhara ...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत शब्द रचना के साथ ...उम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत खूब, गावों तक ले जाती रचना।
ReplyDeleteबढ़िया है सर जी.....
ReplyDeleteये मेरा गाँव भारत का ,ये ही मेरा देश है
प्यार ही प्यार मिलता , हैं अभी तक गाँव में
बहुत खूब !
घर का मेहमान, सारे गाँव का मेहमान है
ReplyDeleteबरसों की रीत पुरानी, है अभी तक गाँव में
बहुत बढ़िया
घर का मेहमान, सारे गाँव का मेहमान है
ReplyDeleteबरसों की रीत पुरानी, है अभी तक गाँव में
बहुत ही सुन्दर सार तत्व समोए है यह प्रस्तुति .
भाव के स्तर पर राग के स्तर पर बढ़िया ग़ज़ल
ये जातीय खाप भला क्यों चली आई हैं मेरे गाँव में ?
दिल्ली मुंबई मुख्त्य्सर सा सफ़र यूं रहा जैसे भू मध्य रेखा से नोर्थ पोल पे चले आये हों आते ही मुंबई की बरसात और ठंडी सुबह ने स्वागत किया .अब दूसरे लम्बे सफर की तैयारी है मुंबई -फ्रेंकफर्ट -देत्रोइत की .आभार आपका आपका एक बार लिंक बहुत्र खोला खुला ही नहीं शायद मेहदी साहब की यादें थीं वहां ...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत गजल .... गाँव की बात ही निराली है ॥
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