गिराई तूने फ़लक से बिजली
नशेमन मैंने अपना खो डाला
अदावत तो हमारी आपस की थी
संग तुने क्यों दूसरों को धो डाला ||
---अकेला
उम्र सारी कट गई
दर्द की छाँव में
न धूप निकली
न जख्म भरे
कांटे पड़े थे राहों में...
जिन्दगी के रेगिस्तान में
चलते-चलते गिरते पड़ते
पड़ गए छाले भी
मेरे पाँव में...
क्यों भटका मैं शहर
के
पथरीले जंगल में
राहें बुलाती रही मुझे
मेरे अपने ही गाँव में...
ढल गयी सांझ जीवन की
दम ले लूँ मैं भी ज़रा सा
जा के पीपल की छाँव में...
वो गांव की कच्ची
पगडण्डी के धूल भरे रास्ते
आँखें बिछाए पड़े है
मेरी राहों में ||
अशोक "अकेला"
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Wednesday, May 23, 2012
दिल की भटकन का .....क्या करे कोई ....
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क्यों भटका मैं शहर के
ReplyDeleteपथरीले जंगल में
राहें बुलाती रही मुझे
मेरे अपने ही गाँव में
भावमय करते शब्दों का संगम ... आभार
ढल गयी सांझ जीवन की
ReplyDeleteदम ले लूँ मैं भी ज़रा सा
जा के पीपल की छाँव में...
जीवन के इस मुकाम में सिर्फ बीती यादें ही तो बची है, जो रह रह कर याद आती है,....
RECENT POST काव्यान्जलि ...: किताबें,कुछ कहना चाहती है,....
BAHUT KMAAL KI RACHNA HAI ASHOK JI...BADHAI SWIIKAREN.
ReplyDeleteNERAJ
वाह...
ReplyDeleteजिन्दगी के रेगिस्तान में
चलते-चलते गिरते पड़ते
पड़ गए छाले भी
मेरे पाँव में...
बहुत सुंदर
सादर,
क्या बात है!!
ReplyDeleteअति सुन्दर रचना....
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति....
:-)
जीवन के संध्या काल में यह विचार दिल को सकूं पहुंचाता है .
ReplyDeleteसुन्दर रचना .
दम ले लूँ मैं भी ज़रा सा
ReplyDeleteजा के पीपल की छाँव में...
gamvir kawita..badhai..
क्यों भटका मैं शहर के
ReplyDeleteपथरीले जंगल में
राहें बुलाती रही मुझे
मेरे अपने ही गाँव में............बहुत.सुन्दर रचना...
सुन्दर प्रस्तुति.....अशोक जी बधाई..
न धूप निकली
ReplyDeleteन ज़ख्म भरे .... गिला करूँ तो किससे
ढल गयी सांझ जीवन की
ReplyDeleteदम ले लूँ मैं भी ज़रा सा
जा के पीपल की छाँव में...
वो गांव की कच्ची
पगडण्डी के धूल भरे रास्ते
आँखें बिछाए पड़े है
मेरी राहों में ||
वृद्ध मन के कोमल अहसास !
वो गांव की कच्ची
ReplyDeleteपगडण्डी के धूल भरे रास्ते
आँखें बिछाए पड़े है
मेरी राहों में द्यद्य
‘वो‘ गांव तो अब बस यादों में ही है।
बहुत अच्छी कविता।
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - तीन साल..... बाप रे बाप!!! ब्लॉग बुलेटिन
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 24 -05-2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में .... शीर्षक और चित्र .
बहुत सुंदर बीती यादों की अभिव्यक्ति,बेहतरीन रचना,,,,,
ReplyDeleteMY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि,,,,,सुनहरा कल,,,,,
आपकी पोस्ट 24/5/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
ReplyDeleteकृपया पधारें
चर्चा - 889:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
बहुत सुंदर प्रस्तुति अशोक जी .....
ReplyDeleteजीवन मे पीपल की ठंडी छांव ...याद आती ही है ....क्योकि जीवन अपनी जड़ॉं से जुड़ा रहता है ...!!
शुभकामनायें....!!......
चर्चा मंच के द्वारा आपके ब्लगा पर आना हुआ ।आपकी रचनाऐ दिल को छू गयी ।
ReplyDeleteयुनिक ब्लाग पर आपका स्वागत है
युनिक
ReplyDeleteक्यों भटका मैं शहर के
ReplyDeleteपथरीले जंगल में
राहें बुलाती रही मुझे
मेरे अपने ही गाँव में...
..किसी शायर का एक शेर याद आ गया ....
सिर्फ एक कदम उठा था ग़लत रहे शौक़ में ,
मंजिल तमाम उम्र मुझे ढूंढती रही .....
......बहुत सुन्दर, दिल को छू गयी आपकी रचना
याद बहुत आता वह बचपन..
ReplyDeleteबीता समय याद आता ही है।
ReplyDeleteदम ले लूँ मैं भी ज़रा सा
ReplyDeleteजा के पीपल की छाँव में...
बहुत खूबसूरती से जीवन के इस पड़ाव पर आपने अपने भाव लिखे हैं ...
क्यों भटका मैं शहर के
ReplyDeleteपथरीले जंगल में
राहें बुलाती रही मुझे
मेरे अपने ही गाँव में...
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी ... यूं कोई बेवफा नहीं होता ...
जीवन की आपाधापी में जब समझ आती है तो कई बार देर हो चुकी होती है ...
गिराई तुने फ़लक से बिजली
ReplyDeleteनशेमन मैंने अपना खो डाला
अदावत तो हमारी आपस की थी
संग तुने क्यों दूसरों को धो डाला ||
---अकेला
वो गांव की कच्ची
पगडण्डी के धूल भरे रास्ते
आँखें बिछाए पड़े है
मेरी राहों में ||आ अब लौट चलें ,नैन बिछाए ,बाहें पसारे ,तुझको बुलाये देश तेरा ...बहुत ही सशक्त रचना है भाई साहब अब तक आपकी सबसे सशक्त भाव अभि व्यंजना कहा जाएगा इसे बधाई हाँ कृपया ऊपर जो शैर है उसमें 'तूने' कर लें तुने के स्थान पर . .कृपया यहाँ भी पधारें -
ram ram bhai
23 मई 2012
ये है बोम्बे मेरी जान (अंतिम भाग )
http://veerubhai1947.blogspot.in/
यहाँ भी देखें जरा -
बेवफाई भी बनती है दिल के दौरों की वजह .
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
क्यों भटका मैं शहर के
ReplyDeleteपथरीले जंगल में
राहें बुलाती रही मुझे
मेरे अपने ही गाँव में...
सबकुछ जानते हुए भी भटकन ही चुनते हैं हम..बिडम्बना है.
बहुत सुन्दर रचना.
बहुत खूब....
ReplyDeleteयादें महत्वपूर्ण हैं ...
शुभकामनायें भाई जी !
ढल गयी सांझ जीवन की
ReplyDeleteदम ले लूँ मैं भी ज़रा सा
जा के पीपल की छाँव में...
बहुत सुंदर
अब कहाँ वह पीपल की छाँव
यादों में रह गया है गाँव
वाह जी सुंदर
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
सांझ ढले छाँव में सुस्ता लेने का आनंद भरपूर मिले...!
ReplyDeleteबेहद सुन्दर कविता !
सादर!
बहुत सुन्दर !
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