Friday, February 17, 2012

गुज़रे वक्‍त की तलाश...


रोज़ कस्म खाता हूँ 
अब न तुम्हे याद करूँगा ,
रोज़ याद करता हूँ तुम्हे 
इक नई कस्म खाने के वास्ते||
------अकेला


'गुज़रे वक्‍त  की तलाश '

जब जब मैं मुड़ के देखता हूँ
 अपने कदमों के छोड़े निशाँ

 जब-जब याद आती गुज़री जिंदगी,
 तब-तब हो जाता हूँ में परेशाँ |

 उन निशानों पर कुछ अक्स उभरते हैं,
 जो कभी तो थे ,मुझ पे मेहरबां |

 कुछ तो हैं अब भी इस जमीं पर,
 और कुछ खा गया वो आसमां |

 अब भी तलाश है मुझे अपने मेहरबां की,
छान डालूँगा उसके लिए मैं सारा जहां |


उन मेहरबानों में ढूंढता हूँ अब भी 'माँ' को,
रूठ मुझसे चली गई ,न जाने कहाँ |

   
देख'अकेला' मुझ को, वो भी रोती तो होगी,
 जब-जब याद में उसकी ,मैं बिलखता यहाँ  ||

अशोक 'अकेला'

15 comments:

  1. रोज़ कस्म खाता हूँ
    अब न तुम्हे याद करूँगा ,
    रोज़ याद करता हूँ तुम्हे
    इक नई कस्म खाने के वास्ते||

    इतनी प्यारी गज़ल सांझा करने का शुक्रिया सर...

    सादर.

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  2. उन निशानों पर कुछ अक्स उभरते हैं,
    जो कभी तो थे ,मुझ पे मेहरबां |
    ...आज गुम हो गए , क्यूँ ? इससे परे - तलाश जरी है

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  3. गुजरा वक्त फिर नहीं आता ...अतीत बन यादो में बस जाता हैं सदा के लिए ...

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  4. वाह ... बहुत खूब।

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  5. ज़िंदगी तो तलाशती सी नज़्म ..... बहुत खूब

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  6. बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है अशोक जी ।
    लेकिन इस उम्र में मां को याद करेंगे तो नानी याद आने लगेगी । :)

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    Replies
    1. डॉ साहब , सच कहा आपने ..नानी याद आने लगेगी ....
      माँ को तो देखा ही नही ,नानी ने पाला-पोसा तो नानी तो वैसे ही नही भूलती ....
      नानी के बहाने!माँ को याद कर लेता हूँ ..?
      आभार !

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  7. कुछ तो हैं अब भी इस जमीं पर,
    और कुछ खा गया वो आसमां |
    यहाँ तो उलटा हिसाब है :ज़मीं खा गई आसमान कैसे कैसे ?


    आपके इस सतत और अनूठे प्रयास को सलाम .

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  8. देख'अकेला' मुझ को, वो भी रोती तो होगी,
    जब-जब याद में उसकी ,मैं बिलखता यहाँ ...

    ये यादें हवा से भी तेज ... नज़र से भी आगे होती हैं ...

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मैं आपके दिए स्नेह का शुक्रगुज़ार हूँ !
आप सब खुश और स्वस्थ रहें ........

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