'गुज़रे वक्त की तलाश '
जब जब मैं मुड़ के देखता हूँ
अपने कदमों के छोड़े निशाँ |
जब-जब याद आती गुज़री जिंदगी,
तब-तब हो जाता हूँ में परेशाँ |
उन निशानों पर कुछ अक्स उभरते हैं,
जो कभी तो थे ,मुझ पे मेहरबां |
कुछ तो हैं अब भी इस जमीं पर,
और कुछ खा गया वो आसमां |
अब भी तलाश है मुझे अपने मेहरबां की,
छान डालूँगा उसके लिए मैं सारा जहां |
उन मेहरबानों में ढूंढता हूँ अब भी 'माँ' को,
रूठ मुझसे चली गई ,न जाने कहाँ |
देख'अकेला' मुझ को, वो भी रोती तो होगी,
जब-जब याद में उसकी ,मैं बिलखता यहाँ ||
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अशोक 'अकेला' |
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वाह, यादें और कस्में..
ReplyDeleteरोज़ कस्म खाता हूँ
ReplyDeleteअब न तुम्हे याद करूँगा ,
रोज़ याद करता हूँ तुम्हे
इक नई कस्म खाने के वास्ते||
इतनी प्यारी गज़ल सांझा करने का शुक्रिया सर...
सादर.
उन निशानों पर कुछ अक्स उभरते हैं,
ReplyDeleteजो कभी तो थे ,मुझ पे मेहरबां |
...आज गुम हो गए , क्यूँ ? इससे परे - तलाश जरी है
बेहतरीन गजल......
ReplyDeleteनेता- कुत्ता और वेश्या (भाग-2)
सुन्दर भावुक रचना !
ReplyDeleteगुजरा वक्त फिर नहीं आता ...अतीत बन यादो में बस जाता हैं सदा के लिए ...
ReplyDeleteवाह ... बहुत खूब।
ReplyDeleteज़िंदगी तो तलाशती सी नज़्म ..... बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है अशोक जी ।
ReplyDeleteलेकिन इस उम्र में मां को याद करेंगे तो नानी याद आने लगेगी । :)
डॉ साहब , सच कहा आपने ..नानी याद आने लगेगी ....
Deleteमाँ को तो देखा ही नही ,नानी ने पाला-पोसा तो नानी तो वैसे ही नही भूलती ....
नानी के बहाने!माँ को याद कर लेता हूँ ..?
आभार !
bahut pyari :)
ReplyDeleteवाह , बेहतरीन पंक्तियाँ
ReplyDeleteकुछ तो हैं अब भी इस जमीं पर,
ReplyDeleteऔर कुछ खा गया वो आसमां |
यहाँ तो उलटा हिसाब है :ज़मीं खा गई आसमान कैसे कैसे ?
आपके इस सतत और अनूठे प्रयास को सलाम .
बहुत खूब!
ReplyDeleteदेख'अकेला' मुझ को, वो भी रोती तो होगी,
ReplyDeleteजब-जब याद में उसकी ,मैं बिलखता यहाँ ...
ये यादें हवा से भी तेज ... नज़र से भी आगे होती हैं ...